केन्द्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड की अध्यक्ष लीला सैमसन के इस्तीफे और नए अध्यक्ष के नियुक्ति पर विवाद जारी है। पूर्व अध्यक्ष के साथ बोर्ड के कई और सदस्यों ने भी इस्तीफा दिया। इन सभी का आरोप है कि बोर्ड में राजनीतिक दखल बढ़ रहा है। कौनसी फिल्म परदे पर चले और कौनसी नहीं, इसको लेकर केंद्र सरकार द्वारा दबाव डाला जाता है। इतना ही नहीं, आरोप यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी अपने लोगों को ही बोर्ड में नियुक्त कर मनमानी करना चाहती है। यह आरोप पार्टी पर नया नहीं है क्योंकि इससे पहले भाजपा सरकार द्वारा कांग्रेस के शासनकाल में नियुक्त राज्यपालोें को हटाकर अपने लोगों को नियुक्त करने का आरोप लगा था। भाजपा सरकार बनने के कुछ ही महीनों बाद चार राज्यों – हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश, गोवा के राज्यपालों को हटाकर वहां नए राज्यपाल नियुक्त किए गए थे। यह सभी भाजपा या इसके साथी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य रह चुके हैं।
फिल्म सेंसर बोर्ड या फिर राज्यपाल जैसी संस्था – इनका अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व है। इनका काम किसी एक राजनीति पार्टी की विचारधारा से नहीं बल्कि देश की जनता और कई अहम फैसले लेने से जुड़ा होता है। ऐसे में किसी पार्टी का ऐसी संस्थाओं पर दबाव बनाना पार्टी के इरादों पर सवाल खडे़ करता है। लेकिन दूसरी तरफ सत्ता के दबाव में आकर इतनी जल्दी हार मान लेना क्या ठीक है?
यह इस्तीफे पहली नजर में व्यक्तिगत प्रतिक्रिया दिखाई पड़ते हैं। जब हम जिम्मेदार पदों पर होते हैं, जब हमारा काम सीधे समाज के हित से जुड़ा होता है। ऐसे में हमें डटे रहें, सत्ता की ताकत के आगे झुकें नहीं ।