धर्मशाला के निचले इलाके में चुरान खड्ड की झुग्गी बस्ती करीब 25 वर्ष पुरानी है। कुल 800 लोग वहां रहते हैं जिनमें से 315 बच्चे हैं। बस्ती के निवासियों का व्यवसाय कूड़ा बीनना, भीख मांगना, बूट पालिश करना या कोई इसी तरह का अन्य कार्य ही है। गंदगी, बीमारी और अशिक्षा व अंधविश्वास में जकड़े है। ऐसे हालातों में तिब्बती शरणार्थी भिक्षु जामयांग पिछले कुछ वर्षों से उन लोगों की जिन्दगी का हिस्सा बन गए हैं। बच्चे से लेकर बूढ़े तक उन्हें प्यार से “गुरुजी” कह कर पुकारते हैं।
जामयांग करीब पांच साल पहले इस बस्ती के कूड़ा बीनने और भीख मांगने वाले बच्चों के संपर्क में आए। मैक्लोडगंज में वे उन्हें कभी पैसे तो कभी खाना दे देते थे। वहां दो बच्चे बीमार थे। उनके इलाज के सिलसिले में वे चुरान खड्ड की झुग्गी झोपड़ियों तक पहुंच गए। जामयांग ने तय किया कि वे झुग्गी बस्ती के लोगों के स्वास्थ्य, बच्चों की शिक्षा और किशोरों के व्यावसायिक प्रशिक्षण पर ध्यान केन्द्रित करेंगे। इससे ही उनका समग्र उत्थान एवं विकास संभव है। उन्होंने पालीथन चादरों और बांस के सहारे से दो टूशन केन्द्र बनाए। एक में पांच वर्ष तक के और दूसरे में उससे बड़े बच्चों को आज व्यावहारिक तौर-तरीके, शिक्षा तथा बातचीत करने के तरीके सिखाए जाते हैं।
जामयांग तिब्बत से यह सोचकर नहीं आए थे कि वे भारत में अति निर्धनों के बीच काम करेंगे। लेकिन संयोगवश वे बच्चों से जुड़े और चुरानखड्ड के अनुभवों ने एक दिशा दे दी। अब जामयांग धर्मशाला में 100 बच्चों के लिए एक और छात्रावास शुरू कर चुके हैं। इसके बाद वे एक-एक करके सभी जिलों की झुग्गी झोपड़ियों में अपना काम शुरू करेंगे। झुग्गी-झोपड़ियों के विकलांगों के समग्र सशक्तिकरण की योजना भी उन्होंने बनाई है।