विवाद चाचा-भतीजे का हो या बाप-बेटे का, हमारे समाज में कोई नयी बात नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी पार्टी सपा में छिड़ा विवाद चर्चा का विषय तब बन गया, जब इसमें पार्टी के मुखिया मुलायम और राज्य के मुख्यमंत्री अखिलेश मुख्य किरदार बने। जैसा कि ज़्यादातर परिवारों में होता है, परिवार के सबसे बुज़ुर्ग व्यक्ति या मुखिया समझौता कराते हैं, वैसा ही इस स्थिति में हुआ।
मुलायम सिंह ने घोषणा की, ‘मेरे रहते पार्टी में कोई विभाजन नहीं हो सकता।’ मुलायम ने अपने भाई और समाजवादी पार्टी नेता शिवपाल यादव और अपने बेटे और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से अलग -अलग बात की और आखिर में जनता के सामने पार्टी का कलह ख़त्म होने की घोषणा की। शिवपाल यादव ने कहा -‘नेताजी (मुलायम सिंह) ने हम सबकी सुनी है।’ वहीं अखिलेश ने कहा -‘नेताजी इस मुद्दे का हल निकालेंगे और हम सबको उनका फैसला स्वीकारना होगा।’
अभी के लिए समाजवादी पार्टी में छिड़ी राजनीतिक जंग ख़त्म हो गई. लेकिन सवाल यह है कि हमारे नेता देश को और अपने राज्यों का शासन कैसे कर रहे हैं? आज भी हमारे देश में कई पार्टियों में वंशवाद की राजनीति चल रही है। कांग्रेस पार्टी उसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यही हाल समाजवादी पार्टी का भी है। परिवार के मुखिया फैसले लेते हैं, कांग्रेस में सोनिया गाँधी और सपा में मुलायम सिंह के फैसले से ऊपर कुछ नहीं है।
ये मुखिया किसके प्रति जवाबदेह हैं? कम से कम सपा के इस कलह ने यह दिखाया कि वंशवाद की राजनीति में भी लोग अलग-अलग विचार रखते हैं। और भविष्य में ये ज़रूरी नहीं कि पार्टी का रूप या उसके काम करने का तरीका बदलेगा नहीं। उम्मीद है कांग्रेस और अन्य पार्टियां भी इससे सबक लेंगी।
वंशवाद की राजनीति, कौन करेगा फैसला?
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