इस लेख को नूतन यादव ने लिखा है। यह दिल्ली विश्व विद्यालय की हिंदी प्रोफेसर है।
आज देश प्रेम को लेकर एक खास तरह का माहौल देखने को मिल रहा है। हर व्यक्ति एक दूसरे से राष्ट्रभक्ति की उम्मीद लगाये बैठा है। सवाल यह है कि यह कौन सी राष्ट्रभक्ति या राष्ट्रप्रेम हैं जो अचानक उठकर सामने आ गया है?
भाजपा के सत्ता में आने के बाद मुसलामानों से भारत माता की जय बुलवाने से लेकर राष्ट्रगान के दौरान खड़े होने का मुद्दा गरमाया हुआ है। राष्ट्रवाद के नए-नए संस्करण सामने आ रहे हैं।
जेएनयू में हुई घटना के बाद तो राष्ट्रभक्ति के सूत्र वेदों उपनिषदों में ढूंढ़ने की कवायद शुरू हो गई है। राष्ट्र की अवधारणा की इतनी संकुचित व्याख्या इससे पहले कभी नहीं देखी गई थी। राष्ट्रभक्ति को लेकर हम सभी को अपनी मानसिकता को नए सिरे से पहचानना होगा। भारतीय इतिहास राष्ट्रवाद के बदलते रूप का गवाह रहा है। नेहरु युग से लेकर आज के बाजारवादी युग तक राष्ट्रवाद और राष्ट्रभक्ति के सन्दर्भ और अर्थ बदलते रहे हैं। राष्ट्र के प्रति प्रेम दिखाने के अवसरों की खोज की जाने लगी है जिसका बाजार फायदा उठा रहा है। ‘देश में निर्मित’ कहकर वस्तुओं को बेचने की कला सदा से आम जनता को लुभाती आई है। देश का नमक कहकर जिस भावना को बेचने की सफल कोशिश दिखती है वही तथाकथित लोकप्रियता का तत्व आज के जनमानस के मन में बैठा दिया गया है। कुछ राजनैतिक पार्टियां और बाजार की ताकतों ने मिलकर राष्ट्रवाद की अवधारणा का रूप ही बदल दिया है। जिस विराट कोहली के रनों से भारत की जीत घोषित की जा रही है क्या उसने कभी जीत की रकम को किसी जनकल्याण के कामों में लगाया है! हर व्यक्ति अपने निजी उद्देश्यों को पूरा करने में अग्रसर है ऐसे में राष्ट्रप्रेम के विस्तृत और व्यापक रूप को समझने की इच्छा उसमें पैदा नहीं होती। जिसमें अपनी बात न मानने पर हत्या जैसा जघन्य काम करने को भी तर्कसंगत अथवा न्यायसंगत करार देते हैं। स्पष्ट है कि आज के समय में राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम जैसी अवधारणाओं को नए सिरे से जानना जरूरी है।