राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत गांव-गांव में आशा, ए.एन.एम. और आंगनवाड़ी नियुक्त की गई हैं। यह कार्यकर्ता गांव की ही महिलाएं होती हैं जिनकी मुख्य जि़म्मेदारी है गांव के लोगों तक सरकारी योजनाओं को पहुंचाना। पर यह काम आसान नहीं है।
‘आठ साल हो गए काम करते पर आशाओं को कोई मानदेय नहीं मिलता है। रात दिन मेहनत करो और जब ज़रूरत पड़ती है तो तुरन्त खाना-पीना छोड़कर भागना पड़ता है।’
– मीना गौड़, आशा कार्यकर्ता, गांव करदासपुर, जिला अम्बेडकर नगर
‘हम गांव में टीकाकरण, गर्भवती की जांच, जन्म मृत्यु का डाटा, नेत्र आपरेशन वालों का डाटा, पोलियो और इन कामों से सम्बन्धित रजिस्टर तैयार करना जैसे के तमाम काम करना पड़ता है। लेकिन मिलता है सिर्फ प्रति डिलेवरी छह सौ रुपए।’
– आशा कार्यकर्ता कमला देवी, बड़ोखर बुज़ुर्ग गांव, जिला बांदा
‘सरकार हमसे जितना काम लेती है उतना रूपये नही देती है। एक डिलेवरी के लिए छह सौ रुपए मिलते हैं जबकि एक केस के चेकअप करवाने के लिए तीन-तीन बार अस्पताल जाना पड़ता है।’
– आशा कार्यकर्ता रेखा, भटेवरा खुर्द गांव, जिला महोबा
‘लोगों को नसबंदी कराने के लिये कहते हैं तो गालियां मिलती हैं। एक डिलेवरी केस में भूखे प्यासे रहना पड़ता है क्योंकि केन्द्र में आशा के रुकने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।’
– आशा कार्यकर्ता शाहीना, गांव पहरा, जिला चित्रकूट
फैज़ाबाद के आशा संगठन के जिला संरक्षक दिनेश सिंह कई सालों से आशाओं के लिए वेतन और सरकारी कर्मचारी कहलाने के लिए मांग कर रहे हैं। उन्होंने जिले स्तर पर ओर राज्य में अलग-अलग जिलों के आशा संगठनों के साथ लखनऊ में भी धरने दिए हैं। पिछली बार 7 अक्टूबर के धरने के बाद आशाओं की कुछ मांगों की सुनवाई हुई है पर अब तक कोई फैसले नहीं लिए गए हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के राज्य प्रशिक्षण कोर्डिनेटर डाक्टर हरिओम दीक्षित के अनुसार गांवों में कई पुरानी धारणाओं को ताड़ने का काम भी आषा और ए.एन.एम. की जि़म्मेदारियों का हिस्सा होता है। उन्होंने यह भी बताया कि आशाओं की हर दो से तीन सालों में ट्रेनिंग होती है। योजनाओं के असर को समझने के लिए भी सभी अधिकारी पूरी तरह से आशाओं और ए.एन.एम की रिपोर्ट पर ही निर्भर होते हैं।