इस लेख को खबर लहरिया की एक पत्रकार ने लिखा है। खबर लहरिया की पत्रकार की राय और अनुभव पर आधारित लेख।
रोटी, कपड़ा, मकान कुछ भी नहीं है दो सप्ताह पहले मैं चित्रकुट जिला के रम्पुरिया गांव गई थी जानकारी के लिए। रम्पुरिया जाने के लिए कोई साधन नहीं था, क्योकि जंगलों का रास्ता था। मैने एक आॅटो बुक किया और जंगलों के बीच घूस कर जाते समय मैं सोच रही थी कि मुझे एक दिन जाने आने में इतनी समस्या नजर आ रही है तो गांव के लोगों की क्या हालत होती होगी। आॅटो हिलते डुलते गांव पहूंचा।
रम्पुरिया गांव में एक नहीं अनेकों समस्याएं थी पर उसमें से सबसे बड़ी समस्या थी वहां के 65 वर्ष के शीतल प्रसाद आदिवासी की। उनको देखकर मैने पुछा बाबा आप कहां रहतें हैं तो उन्होनें कहा मेरा क्या आज यहां, तो कल कहीं और। इसी तरह से चालीस सालों से जिन्दगी जी रहा हूं। मेरे पास घर नहीं, पहनने को कपड़े नहीं, खाने को रोटी नहीं।
गांव के लोग को स्कूल से खाना मिल जाता है तो पेट भर लेता हूं। मैं तो मजदूरी भी नहीं कर सकता हूं। रहने के लिए स्कूल का टूटा रसोई घर है जहां मैं रहता हूं जब चाहे साहब लोग निकाल सकते हैं। यह बताते-बताते शीतल प्रसाद रोने लगा।
उनके बाते सुनकर तो मेरे रोवे खड़े हो गये और मैं सोचने लगी कि शीतल को किस तरह से मंै समझाऊ। शीतल ने यह भी बताया कि जब वह जवान था तो किसानों के यहां काम करके पेट भर लेता था। उसके परिवार में भी कोई नहीं है। वह बिलकुल बेसहारा पड़ा रहता है।
उसने कहा प्रधान तो दसों हूए पर मेरे लिए एक कलोनी कि भी व्यवस्था नहीं कर पाये हैं। शीतल से बाते करते-करते गांव में भीड़ इक्ट्ठा हो गई। अगर गांव के लोग खाना न दे तो किसी और का साहारा भी नहीं है।
यहां तक कि उसको सरकारी सुविधा जो मिलनी चाहिए वह भी नहीं मिल रही है।
जैसे पेंसन, कलोनी राशन कार्ड या असहाय जैसी कोई सुविधा नहीं है उसके पास। शीतल को देखकर लग रहा था कि शीतल जैसे कितने लोग आज के समय में भूख के लिए खाना तलाष रहे हैं।