तहलका पत्रिका के संपादक तरुण तेजपाल और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीष अषोक गांगुली इन दिनों विवाद में हैं। तरुण तेजपाल पर अपनी महिला कर्मचारी के साथ बलात्कार करने का आरोप है तो गांगुली पर अपने साथ काम करने वाली एक जूनियर कर्मचारी का यौन षोषण करने का आरोप है।
पुलिस चैकन्नी है, अदालतों में भी चर्चा हो रही है और मानवाधिकार संस्थाएं भी सख़्त हैं। जि़लों और गांवों के थानों में बैठे लोगों का रवैया भी कुछ बदला है। पहले थाने में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा का कोई मामला आने पर असंवेदनषील सलाह दी जाती थी।
रात में महिलाओं का निकलना ठीक नहीं है, घर की बात घर में ही सुलझानी चाहिए। लेकिन अब लगने लगा है कि केवल षिकायत लिखकर बहलाने की जगह एफआईआर भी लिखी जा रही हैं। हालांकि न्याय मिलने में तेज़ी आई है, ऐसा नहीं है।
16 दिसंबर, 2012 में दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी की रिपोर्ट में दिए गए कुछ सुझावों जैसे बलात्कार की परिभाषा को विस्तृत करना, यौन षोषण की परिभाषा के सीमित दायरे को बढ़ाना, सजा को और सख्त करना – षायद बदलाव का कारण हैं। ऐसा भी हो सकता है कि पिछले साल की घटना के बाद मचे षोर का डर अभी बाकी हो।
लेकिन अब प्रषासन की जिम्मेदारी इसे न केवल और मज़बूत करने बल्कि इससे भी आगे कानूनी प्रक्रिया में तेजी लाने की है। इसके लिए लगातार ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज होने से लेकर न्याय मिलने तक गहरी नज़र रखने की जरूरत है।
रखनी होगी गहरी नजर
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