आँचल लखनऊ के जाने-माने अखबार में बतौर पत्रकार काम करती है। पिछले सात आठ सालों से वे पत्रकारिता कर रही हैं।
अपने कर्मों पर भरोसा नहीं रह गया या यूँ कहें कि कर्म ऐसे हैं ही नहीं जो राष्ट्रवाद कायम करने का दम रखते हों, शायद इसीलिए अब राखी के नाज़ुक धागों से राष्ट्रवाद को बांधने की कोशिश हो रही है।
आने वाले 30 अगस्त को यानी रक्षाबंधन के एक दिन बाद, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच की ओर से 1000 महिलाएं (बहने) राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से आने वाले हिन्दू भाइयों को राखी बाँधेंगी और संभवतः ये इस बात की ज़मानत भी होगी कि अब सड़क पर चलने वाली हर महिला सुरक्षित होगी क्योंकि वो देश चलाने वालों की बहन जो ठहरी। मतलब बे सर-पैर की सारी बातें आती हैं धर्म के इन ठेकेदारों को। दोनों मज़हबों के अलंबरदारों ने एक फैसला लिया और उसे जनता के मत्थे मढ़ दिया…और कोई मीन मेख न निकल सके इसलिए अपनी बेतुकी सोच को ‘राष्ट्रवाद’ का नाम दे दिया।
ये कोई नई बात बात नहीं है…पहले भी कर्मवती ने हुमायूँ को राखी बांधी है, आज भी तमाम अलग मज़हबों के भाई-बहन इस त्योहार को पूरी शिद्दत से मनाते हैं लेकिन वो उनकी अपनी मर्ज़ी होती है। रक्षाबंधन का त्योहार कभी न मज़हब के खांचों में बंटा है न राजनीतिक रंग में रंगा। खालिस अपनेपन के रंग में रंगे इस त्योहार को अब जो बनाने की कोशिश हो रही है, वह कहीं से भी न्यायसंगत नहीं है। ऐसा इसलिए कि कुछ सवाल हैं जिनके जवाब इस ज़बरदस्ती के रक्षाबंधन से पहले आने ज़रूरी हैं। पहला सवाल कि अगर ये दिखावा नहीं है और वाकई रक्षाबंधन मनाना है तो एक दिन बाद 30 अगस्त को क्यों, 29 अगस्त यानी रक्षाबंधन वाले दिन ही क्यों नहीं? दूसरा सवाल कि भाई-बहन दोनों पक्षों से क्यों नहीं, एक तरफ से ज़बरदस्ती लाई गई एक हज़ार महिलाएं और दूसरी ओर सिर्फ दो भाई क्यों? तीसरा सवाल कि आम लोगों के बारे में फैसला दो संगठन कैसे ले सकते हैं, क्या इस बारे में जनता की तरफ से कोई प्रस्ताव आया था?…….अगर नहीं तो राष्ट्रवाद के नाम पर राखी जैसे पवित्र रिश्ते का तमाशा बनाने का क्या मतलब?……और क्या ये भाई अपनी इन एक हज़ार राखी बहनों को तोहफे में उनके हिस्से की आज़ादी, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा मुहैया करवा सकेंगे?