सुमन गुप्ता उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ पत्रकार हैं। वे फैज़ाबाद स्थित जन मोर्चा अखबार में काम करती हैं। इस समय वे यू.पी. स्तर पर पत्रकार हैं।
महिला दिवस खुशी का दिन है। यह दिन याद दिलाता है कि हमें अपने हक के लिए लड़ना है। एक दिन उत्सव मनाकर बाकी साल चुप नहीं रहना है। समाज में औरतों को लेकर जो भेदभाव है, उसे संतुलित करने का संकल्प हमें हर साल इस दिन दोहराना होता है। गैर बराबरी, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ महिलाओं को और ज़्यादा आवाज़ उठानी पड़ेगी। भले ही समाज में तेज़ गति से विकास होने के दावे किए जा रहे हों, लेकिन यह विकास असंतुलित है।
इस असंतुलन का ही नतीजा है कि लड़कियां 21वीं सदी की सोच के साथ बढ़ रही हैं जबकि लड़के 16वीं सदी की सोच में जी रहे हैं। पढे-लिखे लड़के भी लड़कियों को बराबरी का दर्जा देने में हिचकिचाते हैं। पैदा होने, जीने-मरने, खाने-पीने, सोने-जागने, आर्थिक और ज़मीनी हर तरह के मामलों में कदम-कदम पर महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। जाति-धर्म-वर्ग के कई खांचों में महिलाएं कैद हैं। पितृत्ता का पहरा शरीर से लेकर सोच तक रहता है। घर की इज़्ज़त के नाम पर उनकी सोच को सीमित कर दिया जाता है। महिलाओं के लिए फैसले कोई भी ले – पुरुष या खुद औरत, लेकिन सोच पितृसत्ता वाली ही होती है।
महिलाओं की समस्याओं को लोग समाज की समस्या न मानकर उसे महिलाओं के मत्थे मढ़ देते हैं। महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही हिंसा के पीछे भी महिलाओं को ही जि़म्मेदार ठहराया जाता है। अगर कोई लड़की अपने साथ हो रही बदसलूकी के लिए किसी लड़के को थप्पड़ मार दे, तो इसका बदला बेहद डरावने ढंग से लिया जाता है। तेज़ाब डालकर, उसकी हत्या करके, बलात्कार करके। अगर कोई लड़की किसी लड़के के प्रेम प्रस्ताव को नामंज़ूर कर देती है तो तेज़ाब डालकर उसे बदसूरत बना दिया जाता है।
कुल मिलाकर महिला के मुंह से न सुनना पुरुष समाज को मंजू़र नहीं है। ऐसे में ज़रूरी है एकजुटता की, ज़रूरत है मिलकर एक संवेदनशील समाज बनाने की जहां महिलाओं को आज़ादी और बराबरी मिले।