खबर लहरिया न्यूज़ नेटवर्क महिला पत्रकारों का एक समूह है। इस हफ्ते यू.पी. मे चल रही मनरेगा योजना की स्थिति का आंकलन इस नेटवर्क की एक पत्रकार द्वारा किया गया है।
महात्मा गांधी रोजगार गारन्टी योजना (मनरेगा) की ताजा सरकारी रिपोर्ट देखें तो लगता है कि सब ठीक है, मगर कागजी आंकड़ों और जमीनी सच्चाई में बहुत फर्क है। रिपोर्ट के मुताबिक मनरेगा में जिन परिवारों ने काम किया उन लोगों में बत्तीस प्रतिषत गरीबी कम हुई है। जबकि इसी रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि मनरेगा में काम करने वाले लोगों कि संख्या मे कमी आई है। 2011-12 में तीस प्रतिषत और 2013-14 में सत्ताईस प्रतिषत तक मनरेगा में काम करने वाले लोगों में कमी आई। इसका क्या कारण हो सकता है? काम करने वाले दिनों की संख्या भी गिरी है। 2009-2010 में तिरपन दिन थे अब सिर्फ छियालीस दिन है। साठ प्रतिषत ग्रामीण परिवार क्यों बोल रहें हैं कि काम नहीं मिलता है?
मनरेगा से जुड़ा मंत्रालय कहता है कि योजना देष में 99.9 प्रतिषत लागू है, सच्चाई यह है कि मनरेगा के तहत अपने को ठेकेदार बताने वाले लोग बड़े ही शातिराना ढंग से सरकारी बजट की बंदरबांट करते हैं। प्रधान और पंचायत मित्र ज़्यादातर ऐसे लोगों का जाब कार्ड बनाते हैं जिनको काम की जरूरत नहीं होती। या फिर ये लोग उनके करीबी होते हैं। वह असल में काम नहीं करते लेकिन जाब कार्ड बताता है कि उन्होंनेे काम किया है। उससे मिलने वाला पैसा जाब कार्ड धारक, प्रधान और पंचायत मित्र मिलकर बांट लेते हैं। इसमें बैंक मैंनेजर का हाथ भी होता है। यह पैसा तभी बैंक में आता है जब पंचायत मित्र मजदूरों की हाजिरी का मस्टर रोल भर के बैंक में जमा करते हैं और फर्जी हस्ताक्षर के जरिए मजदूरी निकाल लतेे हंै।
गांवों में लोगों के अपने जाब कार्ड प्रधान या पंचायत मित्र के पास होते हैं। इसीलिए मन मुताबिक हाजिरी चढ़ाई जाती है। जिस व्यक्ति को सच में काम की जरूरत है उसका जाब कार्ड तो होता है लेकिन उसमें काम की हाजिरी बहुत कम या फिर भरी ही नहीं जाती है। इसीलिए मजदूरी के रुपए भी कम देकर कमीषन काट लिया जाता है। लोग अपनी मजदूरी के लिए प्रषासन में जाते हैं तो उनके पास सुबूत न होने की वजह से कार्यवाही नहीं होती।