स्वाति माथुर लखनऊ के जाने-माने अंग्रेज़्ाी अखबार में राजनीति, सरकारी मुद्दे और नीति निर्माण से जुड़े मुद्दों पर लिखती हैं। उन्हें खेती, ग्रामीण जीवन और औरतों के बारे में भी लिखना पसंद है।
पैतृक ज़मीन में ग्रामीण औरतों को हक मिलना महिला सशक्तिकरण की बहस को ठोस आधार देने का एक धारदार हथियार है। ज़मीन का अधिकार औरतों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से मज़बूत बनाता है।
जानी-मानी प्रोफेसर डाक्टर बीना अग्रवाल द्वारा 2007 में केरल राज्य में किए गए अध्ययन ने ज़मीन के हक और घरेलू हिंसा के बीच संबंध को देखा। इसमें पाया गया कि जिन महिलाओं को ज़मीन का हक मिला था, उनमें से केवल सात प्रतिशत महिलाएं ही घरेलू हिंसा का शिकार थीं जबकि ज़मीन के अधिकार से बेदखल महिलाओं में उनचास प्रतिशत घरेलू हिंसा के मामले सामने आए थे। अगर औरतों को ज़मीन के हक मिल गए तो ना सिर्फ उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी बल्कि लड़का-लड़की के बीच का भेदभाव भी मिटेगा। और तो और सरकार को जो सैकड़ों योजनाएं औरतों के लिए चलानी पड़ती हैं, जैसे कि कन्या विद्या धन, समाजवादी पेंशन और बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ, इन सब की भी ज़्ारूरत नहीं रहेगी।
उत्तर प्रदेश में खेती की ज़मीन पर पुरुषों का ही हक माना जाता है। 2006 के रेवेन्यू कोड एक्ट जिस पर समाजवादी पार्टी ने 2012 में संज्ञान लिया था, वह भी औरतों के हक को सुरक्षित करने के वादे पर खरा नहीं उतरा। यह कानून अभी तक लागू नहीं हुआ है पर इसके अनुसार कोई औरत जो अचल संपत्ति की उत्तराधिकारी है, अगर वह दूसरी शादी कर लेती है तो उसका यह हक खत्म हो जाएगा।
उत्तर प्रदेश भूमि जमिंदारी उन्मूलन एवं भूमि अधिकार अधिनयम 1951 में हुए आखिरी संशोधन में अविवाहित लड़कियों को उत्तराधिकार के मामले में सबसे ऊपर रखा गया था।
नए कानून में विधवाएं, बेटियां और बहनंेे उत्तराधिकारी घोषित तो हो जाती हैं लेकिन ज़मीन पर उनके अधिकार सीमित होते हैं। वह इस ज़मीन को किसी को दे नहीं सकतीं क्योंकि शादी होते ही यह हक खो देती हैं। जब उस औरत की मौत हो जाती है तो वह संपत्ति उस महिला के उत्तराधिकारी के पास न जाकर ज़मीन के आखिरी पुरुष उत्तराधिकारी को मिलती है। यानी इस हक को दिलाने वाले कानून में ही कई खामियां हैं जिन्हें खत्म किए बगैर यह कानून दिखावटी ही बना रहेगा।