भारत में गांवों के लोगों का पलायन मुख्यता आर्थिक सबलता के लिए होता है। लेकिन भारत के शहरों में आर्थिक असमानता के कारण बिजली, पानी, और स्वच्छता जैसी सुविधाएं एक बड़ी समस्या हैं। इन विषम परिस्थतियों को देखते हुए सरकार को शहरों के लिए ऐसी नीतियां अपनानी चाहिये जो शिक्षा, स्वास्थ्य, भीड़-भाड़ और यातायात की समस्याओं को हल कर सके।
कांग्रेस सरकार ने शहरी विकास के लिए ‘जवाहरलाल नेहरु राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन’ की शुरुआत 2005 में की थी। जिसे मार्च 2014 में बंद कर दिया गया था। भाजपा सरकार के आने के बाद इस मिशन को ‘स्मार्ट सिटीज मिशन’ के नाम से 2015 में पुनः शुरू किया गया।
‘स्मार्ट सिटी’ एक आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण मिशन है जो बुनियादी ढांचे, सामाजिक सुविधाओं, संचार और बाज़ार व्यवहार्यता में उत्तम माना जा रहा है। स्मार्ट सिटी के तहत, सरकार का लक्ष्य है कि चुनिंदा 100 शेहरों को ‘स्मार्ट’ बनाया जाए। शुरुआत में 20 शहरों को चुना गया है। उत्तर प्रदेश से 13, तमिलनाडु से 12, महाराष्ट्र से 10, मध्य प्रदेश से 7 और बिहार और आंध्रप्रदेश से 3 शहर चुने गए हैं।
लेकिन अब स्मार्ट सिटी के कार्य में रुकावटें आनी शुरू हो गयीं हैं। 2014-15 में भाजपा सरकार ने स्मार्ट सिटी को 7,016 करोड़ आवंटित किये थे, जो पैसा केंद्र से राज्यों के पास जाना था। हालांकि सरकार ने केवल 924 करोड़ रुपये खर्च किए थे जो पूर्व योजनाओं में लग गये। दूसरे साल में केवल 143करोड़ ही आवंटित किये गये हैं।
दिल्ली नीति समूह के अमिताभ कुंडू का कहना है कि ‘स्मार्ट सिटी के लिए सरकार की तरफ से आवंटित बजट कम पड़ेगा। जिससे मिशन में हानि हो सकती है। स्मार्ट सिटी की एक सार्वजनिक-निजी भागीदारी परियोजना के रूप में कल्पना की गई थी। इसलिए इस योजना की सफलता निजी क्षेत्र के वित्तीय योगदान पर भी निर्भर है’।
निजी क्षेत्र के कम योगदान का कारण कुंडू समझाते हैं। उनक कहना है कि ‘निजी कंपनियों ने पानी की आपूर्ति, अपशिष्ट प्रबंधन और सस्ती स्वास्थ्य देखभाल की तरह आवश्यक बुनियादी ढांचे में निवेश करने में रुचि नहीं दिखाई है। वे डिजिटल बुनियादी ढांचे और अचल संपत्ति की तरह लाभ गहन क्षेत्रों को विकसित करने में अधिक रुचि रखते हैं’।