देश में 4 नवम्बर को मुहर्रम समाप्त हुआ। मुस्लिम समुदाय के लोगों ने अलग-अलग तरीकों से इस दिन को मनाया। पर आखिर क्या है इसके पीछे की कहानी?
दरअसल, ‘मुहर्रम’ इस्लाम धर्म में साल के पहले महीने का नाम है। महीने के दसवें दिन लोग ताजि़ए निकालते हैं और उन्हें अपने धार्मिक स्थल ‘करबला’ में जाकर दफनाते हैं। दसवें दिन मुस्लिमों के शिया समुदाय के लोग पैगंबर के पोते इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं। माना जाता है कि इस दिन हुसैन और उनके समर्थकों को इराक देश के करबला शहर में एक युद्ध में मारा गया था।
यही कारण है कि कई जगह लोग मुहर्रम के जुलूस में शहीदों के लिए प्रार्थना करते, उनके मृत्यु का मातम मनाते और दुख भरी कविताएं (जिन्हें ‘मजलिस’ कहा जाता है) सुनाते चलते हैं। मुस्लिमों के सुन्नी समुदाय के लोग प्रार्थना में डूब जाते हैं और कुछ लोग उपवास भी करते हैं। पर शिया समुदाय के लोग इस दिन शोक मनाते हैं और अकसर इस शोक को व्यक्त करने के लिए लोग खुद को चोट भी पहुंचाते हैं।
जिला महोबा। शहर के भटीपुरा मोहल्ले से करबला तक मुहर्रम का जुलूस निकलता है। बूढ़े और बच्चे इसमें शामिल होते हैं और सुन्दर जगमगाते ताजि़ए को ढोल की आवाज़ के बीच करबला तक ले जाया जाता है। सालों से ढोल बजाने वाले कल्लू ने बताया कि ढोल इसलिए बजाया जाता है जिससे सबको पता चल जाए कि ताजि़या निकल रहा है।
जिला लखनऊ। टालकटोरा के पास नवाबों के ज़माने का बना मीर बक्श करबला लखनऊ में मशहूर है। मुहर्रम के दिन यहां ताजि़या दफनाने के लिए शहर भर से लोग आते हैं। 1993 से यहां काम कर रही पिछत्तर वर्षीय मीरा बताती हैं कि हर साल मुहर्रम पर यहां लगभग दो-ढाई सौ ताजि़ए दफनाए जाते हैं। कुछ लोग यहां ज़मीन खरीदकर कब्रें भी बनवाते हैं।