जबसे मेरी जिंदगी में ‘शादी कब करोगी’ वाला सवाल घुसा है, तबसे मैं एक लेख लिखना चाह रही हूं. जिसका शीर्षक हो ‘मुझसे शादी न करने के एक हजार कारण’. मैं इसे लिखना टालती गई. क्योंकि पहली बात तो इसे लिखने से मुझे डर लग रहा था. दूसरी बात, शादी के दबाव के बारे में तो सभी लिखते हैं. इस लेख को लिखने की प्रेरणा असल में इस समझ के साथ आयी, कि ये दबाव सिर्फ शादी करने का नहीं, बल्कि बड़े ही क्रमबद्ध तरीके से औरतों को उनके व्यवसाय और जीने के तरीके के बारे में लेकर हतोत्साहित करना है. ये समझा कर, कि समय रहते शादी नहीं की तो अकेली रह जाओगी.
ये कुछ समय पहले की बात है, जब मैं भोपाल में घर पे रहते हुए तहलका हिंदी में रिपोर्टर थी. एक शाम काम के बाद मैं जिम गई. वापस आई तो देखा कि एक दूर के चाचा मुझे ‘देखने’ आए हैं, अपने बेटे से ‘रिश्ते’ के लिए. और ये तब हुआ, जब मैं बार-बार अपने माता-पिता से कह चुकी थी कि मुझे शादी की बातों के बाहर रखें. मां ने मुझसे कहा कि तैयार होकर आऊं. लेकिन मैं अपने जिम वाले कपड़ों में ही कमरे में घुस गई. और पांव पर पांव रख उनके सामने बैठ गई. उन्होंने अपने ‘नौ-सेना वाले लड़के’ के बारे में बहुत कुछ कहा. फिर कहा, ‘बेटा तुम्हें तो जोखिम भरा काम करने का बहुत शौक है. तुम मेरे बेटे के साथ दुनिया घूमना पसंद करोगी?
उस समय मैं 24 साल की थी. और उस साल ये सारे काम कर चुकी थी: ड्रग्स के गैरकानूनी धंधे पर एक लेख, एक जाति के आधार पर किए जाने वाली हिंसा पर, औरतों और बच्चों को बेचने पर, सम्मान रक्षा हेतु हत्या, और बुंदेलखंड में बलात्कार और हत्या की कहानियां लिख चुकी थी. कुपोषण पर एक लेख करते हुए सतपुड़ा के जंगलों में घूमी थी. एक मुख्य लेख के लिए चंबल के डकैतों से बात-चीत तय की थी.
मैंने अंकलजी से कहा कि मेरी जिंदगी पहले से ही बहुत रोमांचक हैं. मुझे उनके बेटे के समुद्री जहाज़ की जरूरत नहीं है. मेरे माता-पिता ने हंस कर ये जता दिया कि मैं मजाक कर रही हूं. अंकल भी हंस लिए.
रुकना कब है, ये न तय पाने की अवस्था में उन्होंने पूछा, ‘बेटा, चश्मे के बिना कुछ भी नहीं दिखता? ज़रा चश्मा उतार के दिखाओ.
मैंने अपने दोस्तों से सुना था, किस तरह ‘लड़के वालों’ ने उन्हें सैंडल उतरवा, चलवा कर देखा था कि उनकी असल हाइट का पता लग सके. लेकिन इस तरह की कोई चीज़ मेरे साथ पहली बार हुई थी. मेरा पारा चढ़ गया. मैंने अंकल से दफा होने को कहते हुए कहा, ‘मैं किसी के शौक पूरे करने के लिए अपना चश्मा नहीं उतारती. आपके लिए तो बिलकुल नहीं उतारूंगी.
मेरे रिश्तेदार कहते हैं, ‘ज़माना बदल गया है. अब मर्द पहले जैसे नहीं होते. वो रसोई में मदद करते हैं. और बहुत एडजस्टिंग होते हैं. तुम्हें हर दिन खाना नहीं बनाना पड़ेगा.’
इस ‘एडजस्ट’ शब्द से मुझे नफरत होती है. इस शब्द में औरतों के लिए दया है. मैं कुछ लड़कों को जानती हूं जो इस बात से खुश हैं कि दफ्तर के बाद घर पहुंचने पर उनकी पत्नी अपने घर में होती हैं. ‘मैं घर पे पत्नी से आराम और सुकून चाहता हूं.’ ऐसा एक आदमी ने मुझसे कहा, जिससे मैं एक लेख के सिलसिले में मिली थी.
अधिकतर मर्द, जिन्हें मैं जानती हूं, औरत को आराम का सामान मानते हैं. ‘उन्हें घर आते ही गर्म खाना, और उससे भी गर्म बिस्तर चाहिए’. ऐसा एक दोस्त ने कहा. दूसरी ने कहा, ‘अगर तुम अपने काम और व्यवसाय पर ज्यादा ध्यान दोगी तो कोई लड़का तुम्हें पसंद नहीं करेगा. अगर तुम्हारे नारीवाद विचार हैं, तो तुमसे कोई प्यार नहीं करेगा.’ ‘सामान्य’ लड़की की श्रेणी भी उसी तरह बनाई गई है जिस तरह ‘असामान्य’ लड़की की बनाई गई है. इसलिए मुझे विश्वास नहीं है कि शादी के बाद मेरे व्यवसाय पर फर्क नहीं पड़ेगा. उन पुरुषों के मुकाबले, जो रसोई में पत्नी का हाथ बंटाते है, मैंने पाया है वो औरतें कई ज्यादा संख्या में हैं जो काम करते हुए भी पूरे परिवार का ध्यान रखती हैं, सास-ससुर का ख्याल रखती हैं, खाने के समय एक अच्छी बहू का किरदार निभाती हैं. फिर अगर मैं अपनी शादी के ऊपर अपने व्यवसाय को प्राथमिकता देती हूं, तो इसमें क्या गलत है?
मेरी मां कभी स्कूल नहीं गईं. लेकिन बाद में हिंदी में दस्तखत करना, और थोड़ी बहुत हिंदी पढ़ना सीख गईं. मेरे पिता ने 10वीं के बाद स्कूल छोड़ दिया. ट्यूशन पढ़ाकर और दूध बेचकर 12वीं के प्राइवेट परीक्षा दिए. इसके बाद अंशकालिक नौकरी करते हुए डिप्लोमा पूरा किया. वो मुझे पढ़ाना चाहते थे, और पढ़ाया. भले ही वो मेरी मर्ज़ी की पढ़ाई नहीं थी. लेकिन वो धीरे-धीरे मुझे समझना सीख रहे हैं. मेरी ज़िन्दगी और भविष्य के फैसलों के साथ सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रहे हैं.
पिछले महीने मैं एक फेलोशिप के लिए लंदन में थी. तभी एक दोस्त का मैसेज आया कि उसकी शादी हो रही है. उसकी सगाई की तस्वीरों को गौर से देखने के बाद मैंने उसे उत्साहित होकर जवाब दिया. लेकिन उस उत्साह से पहले मुझे पेट में अजीब-अजीब सा लग रहा था. अब मैं अपने सारे दोस्तों में अकेली अविवाहित लड़की बची हूं. मुझे अचानक एक दबाव महसूस हुआ, 28 की उम्र में शादीशुदा न होने का. शायद मैंने गलत फैसले लिए. कहीं ऐसा तो नहीं कि शादी के बारे में अपने विचारों के चलते मैं अब अकेली न रह जाऊं.
मैंने ये समझा है कि मुझे सिर्फ इसलिए शादी करने की जरूरत नहीं है कि सब कर रहे हैं. लेकिन किसी का प्यार या साथ, या फिर शादी के लिए साथी खोजना? ये भी मेरे लिए आसान नहीं होने वाला. इंडिया में जवान प्रेमियों को धर्म और जाति के बाहर शादी करने पर मार डाला जाता है. लड़कियों से मां-पिता और प्रेम के बीच किसी एक को चुनने को कहा जाता है. आपके लिए शादी करना जरूरी है, लेकिन आपको प्यार करने का हक़ नहीं है.
जहां मैं पैदा हुई, बड़ी हुई, वहां से लेकर आज तक का सफ़र कठिन रहा है. लेकिन ये दौर मेरे जीवन का सबसे जरूरी समय भी रहा है. मेरे रिश्तेदार मुझे बताते हैं कि एक बार 30 साल की हो गई, तो शादी के बिना कितनी अकेली हो जाऊंगी. यहां तक कि भोपाल के साड़ी वाले, जिन्होंने मुझे छोटी उम्र से देखा है, अब मुझे साड़ी दिखाने से मना कर देते हैं. अगर दफ्तर में पहनने के लिए साड़ी लेने जाऊं, तो कहते हैं ‘अब तो शादी के लिए ही साड़ी खरीदो बिटिया, देरी हो रही है. ‘मेरे घर वाले मेरे लिए दूल्हा खोजते रहते हैं. कई परिवार, जिनसे वो रिश्ते के लिए मिले हैं, उन्हें लगता है मैं ज्यादा सफल, मज़बूत औरत हूं. मैं उनके बेटे की छवि को दबा दूंगी. लेकिन कोई ये नहीं कहता कि लड़का लड़की से ज्यादा सफल है. बल्कि वो कहते हैं कि लड़की लकी है कि उसे ऐसा पति मिला.
मैं कैसे समझाऊं कि मैं महसूस करती हूं कि मैं लकी हूं कि मुझे मैं मिल गई हूं, अपने लिए. और खुद को पाने के बाद खोने का कोई इरादा नहीं है. ये आपके लिए मुझसे शादी न करने का पहला कारण है. आप कहें तो मैं 999 और बता सकती हूं.