मुजफ्फरनगर दंगों को हुए तीन साल पूरे होने को हैं लेकिन अभी भी उनका असर पीड़ित लोगों के मन से गया नहीं है। यह लोग मानसिक रूप से इस बात के लिए चिंतित रहते हैं कि आगे का जीवन नए लोगों के बीच कैसे कटेगा!
दंगों से पीड़ित दस गांवों को राहत कैंप में पहुंचाया गया था। आज ढाई साल बाद, आधे से ज्यादा कैंप हटाए जा चुके हैं। कईयों को मुआवजा भी मिला जिसकी बदौलत आज कुछ लोग नए सिरे से अपनी जिंदगी शुरू कर पाए हैं।
कुछ सामाजिक संगठनों ने मिल कर पीड़ित लोगों की मदद की। इन सामाजिक संगठनों ने लोगों को पुनःस्थापित होने में सहायता की और बच्चों को फिर से स्कूल पहुंचाया। महिलाएं फिर से घर सम्भालने लगी और पुरुष पैसे के लिए काम-काज करने लगे। लेकिन दंगों का सामना करने वालों में अभी भी दंगों का दर्द बाकी है। हालांकि उन्हें इस बात का भी विश्वास है कि वो अब यहां सुरक्षित हैं लेकिन फिर भी लोगों के बीच घुलने-मिलने से घबराते हैं।
गौरतलब है कि, मुजफ्फरनगर में वर्ष 2013 में हुई सांप्रदायिक हिंसा और आगजनी में बिखरे गांव फुगाना, कुटबा गांव वाले भागकर शामली आ गए थे। यहां आने के बाद वनांगना सामाजिक संगठन की सहायता से कैराना की आर्यापुरी पंचायत के पास बसी आर्य पुरम कॉलोनी में कई लोगों ने अपना घर बसाया है। सरकार से मिले मुआवजे और संगठन की मदद से लोगों ने अपने पक्के मकान बना कर तैयार किये हैं।
इन दंगा पीडि़तों के साथ काम कर रही सदभावना सामाजिक संगठन की संचालिका माधवी कुकरेजा ने बताया कि “ढाई साल हो गए हैं, यहां आए लोगों की सहायता करते, उन्हें स्थापित करते हुए। दंगों के समय बहुत सी संस्थाएं आई थीं इन लोगों की मदद के लिए लेकिन धीरे-धीरे सभी ने साथ छोड़ दिया। अब तीन संस्थाएं मिल कर इन लोगों के लिए काम कर रही हैं जिनमें सदभावना ट्रस्ट ,वनांगना और हुनरशाला है। दरअसल, जो सस्थाएं पहले आई थीं उन्होंने जल्दबाजी में काम करने का सोचा जिससे उन्हें भी कुछ फायदा हो सके। लेकिन हम लोगों को सिर्फ उनके लिए खाना-पीना ही नहीं जुटाना था बल्कि उन्हें फिर से एक बार स्थापित करना था। ताकि विस्थापित हुए लोगों अपना घर-बार फिर से बसा सकें। इसके लिए सबसे पहले हमने उनके रहने की व्यवस्था की और उनके लिए घर बनवाये। हालांकि इस घर को बनवाने में उन सभी लोगों का पैसा और मेहनत दोनों लगे हैं। बच्चों के लिए स्कूल की व्यवस्था की। शुरुआत में बच्चे इतने डरे हुए थे कि अकेले स्कूल जाना ही नहीं चाहते थे। तब हमारी संस्था के लोग उन्हें रोजाना, तीन महीनों तक स्कूल छोड़ने ओर लेने जाया करते थे। इसके बाद उनको यहां का नागरिक बनाने के लिए उनके सभी कागजात बनवाने का काम किया। आर्थिक, सामाजिक और मानसिक मदद के साथ-साथ इन लोगों को भविष्य के लिए जागरूक भी बना रहे हैं। अभी तक कुल 140 मकान संस्थाओं ने बनवाए है”।
जाहिर है इतने बड़े हादसे के बाद लोग दोबारा वहां जाने के बारे में सोचेंगे ही नहीं! लेकिन फिर भी अपने जन्मस्थान को भुला पाना मुश्किल होता है।
आर्य पुरम कॉलोनी निवासी मोहम्मद गुलजार मुज्जफरनगर के कुटबा गांव से हैं और यहां अपने नए घर को बनता देख अतीत को याद करते हुए कहते हैं कि “किसने सोचा था कि बसा-बसाया घर, हमारी ही आंखों के सामने जल कर खाक हो जायेगा। उस दंगे ने मेरे दादा को मुझसे छीन लिया। वो दृश्य अभी भी आंखों के सामने आ जाता है। वापस जाने का सोच कर ही डर जाते हैं। मकान तो अब रहा नहीं और गांव भी अब कब्रिस्तान में बदल चुका है। उस वक्त, हर कोई एक दूसरे को बस मारना चाहता था। हिन्दू हो या मुस्लिम सभी एक दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे लेकिन इस बीच हमारी जान हिन्दू परिवार ने ही बचायी थी। हम लगभग 14-15 लोग एक जाट के घर में छुपे थे। उस परिवार का आज भी शुक्रगुजार हूं जिसकी वजह से मैं आज आपसे बात कर पा रहा हूं”।
बसीकला से आये असी मोहम्मद का कहना है कि “यहां अलग-अलग जगह से लोग आकर बस गये हैं। हम लोग इस जगह के लिए नए हैं और अन्य लोगों से घुलने-मिलने से कतराते हैं। ऐसा नहीं है कई हम मिल-जुल कर नहीं रहना चाहते, बस डर लगता है। अभी भी काम पर जाते हैं तो आस-पास के घरों में कोई-न-कोई मर्द जरुर रहता है। सोचते हैं कि यदि वापस जा सकते तो अच्छा था लेकिन परिवार का ख्याल आता है तो खौंफ लगता है। अब हम यहीं सही हैं।
इन दंगा पीडि़तों में एक तरफ जहां हर कोई खुल के मुस्कुराता भी नहीं है वहीं, अकबरी खिलखिला कर हंसती हुई कहती है कि “मेरी गोद में जो बच्चा है वो दंगे के दौरान ही हुआ था। इसे देखती हूं तो लगता है यह बच गया मतलब भगवान की कृपा है।”
लोगों ने अपना जीवन शुरू तो कर लिया है लेकिन अतीत के पलों को भी भुला नहीं पाए हैं। इन लोगों को वापस उनकी जिंदगी में लौटने के लिए सद्भावना जैसे सामाजिक संगठन प्रयासरत हैं।
हालिया हुए ‘युवा महोत्सव’ में दो दिवसीय कार्यक्रम के दौरान इन संस्थाओं की पहल देखने को मिली। दंगा पीडि़त परिवारों के बच्चों को मनोरंजक तरीके से शिक्षा देना और उन्हें खेल-खेल में ‘अच्छी आदतें’ सिखाई जा रही थी। वहीं, महिलाओं को उनके अधिकारों और दैनिक जीवन में उपयोगी जानकारियों के बारे में बताया जा रहा था। इस बीच नाटक, संगीत, खेल, फिल्म और भाषणों का एक सत्र चला। निश्चित ही सामाजिक संगठनों का सहयोग अतुलनीय है लेकिन क्या सरकार का इन दंगों पीडि़तों के प्रति सिर्फ मुआवजा देने के आलावा कोई और सरोकार नहीं? या मुआवजा देकर सरकार ने अपना पल्ला झाड़ लिया है? क्या यह पीडि़त परिवार यहां आकर एक निश्चित भविष्य की कल्पना कर सकते हैं?
रिपोर्ट-प्रियंका सिंह