2013 में मुज़फ्फरनगर में हुए दंगों की यादें आज भी हमारे ज़मीर को कचोटती हैं। इसी हफ्ते, मुज़फ्फरनगर के एक और मामले में पकड़े गए अभियुक्त बरी कर दिए गए। फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा चार आदमियों को जिनपर फुगाना पुलिस थाना इलाके में एक औरत के बलात्कार का इलज़ाम था बरी कर दिया गया है। इस मामले के 13 गवाहों में से तीन मुख्य गवाहों – औरत जिसका बलात्कार हुआ, उसका पति और परिवार – ने गवाही बदल दी। पीडि़ता के पति ने मीडिया को बताया की एफआईआर लिखवाने के सात महीने बाद से उन्हें धमकियां मिलने लगीं। परिवार की सुरक्षा के लिए परेशान होकर उन्होंने अपनी गवाही बदल दी। पुलिस सुरक्षा लेने की सारी कोशिश बेकार रहीं।
जब भी हमने मुज़फ्फरनगर पर बात की है इसकी दिल्ली से नज़दीकी पर टिप्पणी भी की है। दिल्ली जो भारत की राजधानी है। राजधानी के इतने पास इतने बड़े स्तर का दंगा हो गया, हज़ारों लोग बेघर हो गए, कितनी ही औरतों का बलात्कार हुआ ये चर्चा का विषय बना हुआ है। आज भी हिंसा के पीडि़तों को सुरक्षा नहीं है। उनके साथ लगातार अन्याय किया जा रहा है।
ये मुज़फ्फरनगर का दूसरा बलात्कार का मामला है जिसमें अभियुक्तों को बरी किया गया है। मुज़फ्फरनगर और यहां के बेघर हुए लोगों के साथ जो हो रहा है वो नया नहीं है, उसमें एक जाना पहचाना पैटर्न है – गुजरात 2002, हाशिमपुरा 1987, भागलपुर 1989।
ये फैसला 13 फरवरी को होने वाले उपचुनावों से पहले आया है। मुज़फ्फरनगर का वातावरण भी इस वक्त राजनीतिक रूप से गर्म है। भाजपा सदस्य जैसे संजीव बालियन और कपिल देव (जो 6000 वोटों से चुनाव जीत गए है) सांप्रदायिक भावनाओं को उकसा रहे हैं। उनका चुनाव प्रचार ‘लव जिहाद’, राम मंदिर और उनकी औरतों की इज़्ज़्त पर केंद्रित है।
जिस तरह यहां न्याय का मज़ाक बनाया गया है और खुले तौर पर सांप्रदायिक धु्रवीकरण करके धर्म के आधार पर लोगों को बांटा जा रहा है, मुज़फ्फरनगर हमारे ज़मीर को कचोटता ही रहेगा।
मुज़फ्फरनगर अभी भी बाकी है
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