बिहार के छपरा जिले में मिड डे मील से हुई बच्चों की मौत ने देश में हंगामा खड़ा कर दिया है। 2001 में सर्वोच्च अदालत के दिशा निर्देश में मिड डे मील योजना पूरे देश में लागू हुई थी। इस योजना से देश के 12 करोड़ बच्चों तक पौष्टिक खाना पहुंचाया जाता है। लाभ पाने वाले इनमें से अधिकतर बच्चे दलित और गरीब परिवारों से हैं। यही बच्चे भूख और कुपोषण का भी शिकार होते हैं। ऊंचे और संपन्न वर्ग के माता पिता अपने बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में ही कराते हैं। ऐसे में यह योजना गरीब, दलित और अल्पसंख्यक बच्चों पर ज्यादा असर छोड़ती है। योजना के तहत बंटने वाला खाना गांव में अधिकतर बच्चों के लिए पहले वक्त का खाना होता है। इस खाने का उद्देश्य कुपोषण को भी खत्म करना है। ऐसे में तय की गई गुणवत्ता के मानकों में अगर खाना सही नहीं बैठता तो योजना का उद्देश्य भी पूरा नहीं होता।
बिहार की इस घटना के सभी पहलुओं पर अगर नजर डालें तो इसमें निगरानी और इसे लागू करने की प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं। वजह यह भी हो सकती है खाने और पढ़ाने दोनों ही काम शिक्षक ही करते हैं। जबकि अगर सर्वोच्च अदालत के दिशा निर्देशों को देखें तो इसमें सामुदायिक हिस्सेदारी की बात कही गई थी। विद्यालय शिक्षा समिति और माता समिति इसी सामुदायिक हिस्सेदारी के तहत आती हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकतर स्कूलों में ऐसी समितियां शुरू ही नहीं हुई हैं। ऐसी स्थिति में छपरा की घटना सरकार के लिए खतरे की घंटी है । फौरन कदम नहीं उठाए तो न जाने कितने बच्चों को अपनी जान गंवानी होगी।