चित्रकूट जिले के मानिकपुर ब्लॉक के दाड़ी गांव की राजकुमारी और प्रेमा एक साधारण जीवन जीते हुए, असाधारण महिलाएं हैं। उनका परिचय उनका दलित होना नहीं बल्कि उनका असली परिचय उनका काम है। राजकुमारी और प्रेमा एक हैंडपंप मकैनिक हैं।
38 वर्षीय राजकुमारी ने 1992 से समाज सेवी संस्था वानंगना के साथ जुड़ कर हैंडपंप बनाने का काम सीखा। आज राजकुमारी को हैंडपंप बनाते हुए 22 साल पूरे हो चुके हैं। अपने आठ बच्चों और पति के साथ एक भरेपूरे परिवार की जिम्मेदारी सम्भालते हुए राजकुमारी हैंडपंप मैकेनिक का काम बखूबी करती हैं। राजकुमारी पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन अपनी मेहनत और लगन के दम पर आज अपने पैरों पर खड़ी हैं। वह ख़ुशी से बताती हैं कि वह आज एक कामयाब महिला हैं। राजकुमारी ब्लॉक की वोर्ड सदस्य होने के साथ-साथ दलित महिला समिति की एक जिम्मेदार सदस्य भी है।
राजकुमारी अपनी सफलता का श्रेय अपनी जेठानी प्रेमा और अपने पति को देती हैं. प्रेमा जिन्होंने राजकुमारी को हैंडपंप बनाना सिखाया और उनके पति जो पेशे से तो राजमिस्त्री हैं लेकिन अब खुद भी हैंडपंप बनाते हैं, उन्होंने अपना पूरा सहयोग राजकुमारी को दिया।
राजकुमारी पढ़ नहीं पायी इसलिए अपनी बेटियों को पढ़ा रही हैं। वह इस बात से बेहद खुश होती हैं कि उनकी बेटी बीए फाइनल में आ गयी है और जल्द ही आगे की पढ़ाई शुरू करेगी। राजकुमारी खिलखिला कर बताती हैं कि उनकी बेटी उनको पढ़ाना सीखा रही है। जो उन्हें उत्साहित करता है।
एक हैंडपंप मैकेनिक होते हुए राजकुमारी खुद के प्रति समाज में एक इज्जतदार छवि देखती हैं। लोग उनका सम्मान करते हैं और उन्हें उनके नाम से, उनके हुनर से जानते हैं।
इसी तरह की प्रेरणादायक कहानी प्रेमा की भी है जो राजकुमारी की जेठानी कम दोस्त ज्यादा है। दोनों का रिश्ता अनमोल है। एक-दूसरे के साथ पूर्ण सहयोग और प्रेम के साथ दोनों ने 1992 से अब तक का सफर पूरा किया है। 40 वर्षीय प्रेमा ने अपने 25 साल हैंडपंप बनाने में दे दिए। अपने 6 बच्चों के साथ वह एक संतोषजनक जीवन जी रही हैं। प्रेमा महिला समाख्या कार्यक्रम के तहत हैंडपंप बनाना सीखीं थीं और तब से लेकर आज तक कई लोगों को, अलग-अलग जिले में जा कर हैंडपंप बनाना सीखा चुकीं हैं।
पहले उन्हें हैंडपंप बनाने के 20 रुपए मिला करते थे, फिर सरकारी तौर पर 100 रुपए मिलने लगे जो बाद के कुछ सालों में 200 तक बढ़े। लेकिन अब उन्हें कोई खास पारिश्रमिक नहीं मिलता। प्रेमा इस बारे में बताते हुए निराश हो जाती हैं और कहती हैं कि उन्हें दुःख है कि उन्हें महीनें पर कोई मेहनताना नहीं मिलता। जो थोड़ा बहुत पहले मिला करता था वह भी अब बंद हो गया है। प्रेमा को लगता है कि महिला समाख्या कार्यक्रम की समाप्ति ने उन्हें बेसहारा कर कर दिया। अब वह जितना काम करती हैं बस उतना ही कमा पाती हैं। इन सब बातों के बावजूद प्रेमा आत्मनिर्भर हैं और अपने काम के जरिये गांव भर में चर्चित हैं। अक्सर पुरुष उन्हें उनके काम को लेकर चुनौती देते रहते हैं, जिसे प्रेमा ने हर बार पूरा कर उन्हें हराया है।
राजकुमारी और प्रेमा ने दलित होते हुए, समाज में फैली छुआछूत की पतित अवधारणा को अपने काम द्वारा परास्त किया है। पहले जहां गांव के सवर्ण लोग उनका छू जाना भी बर्दाश्त नहीं करते थे, वहीं लोग आज हैंडपंप सही कराने के लिए उन्हें बुलावा भेजते हैं। यही नहीं, महिला हो कर पुरुषों का काम करने की गलत सोच को भी उन्होंने बदल कर रख दिया है. आज गांव, जिला, ब्लॉक भर के सभी लोग उन्हें ससम्मान बुलाते हैं और उनकी आवभगत करते हैं।
रिपोर्ट – खबर लहरिया ब्यूरों