अब हर हफ्ते खबर लहरिया में पढ़ें महिला पत्रकारों की कुछ खास खबरें। राजनीति, विकास, संस्कृति, खेल आदि की ये खबरें देश के कोने-कोने से, छोटे-बड़े शहरों और अलग-अलग गांवों से हैं। इस हफ्ते, डाक्टर स्मिता वशिष्ट से मिलें। ये हरिद्वार में पत्रकारिता की एसिसटेंट प्रोफेसर हैं। पिछले आठ सालों से पढ़ा रही हैं। पत्रकारिता से जुड़े शोध एवं प्रकाशन के काम को भी देखती हैं।
महिलाओं की समस्याओं के बारे में सबकी अलग अलग राय है। एक समस्या पूछो तो एक लंबी चैड़ी सूची पढ़कर लोग सुना देते हैं। सूची में प्रमुखता के साथ कुछ समस्याएं तो हर कोई शामिल करता है। यौन हिंसा, भ्रूण हत्या, घरेलू हिंसा, दहेज, घर और दफ्तर में भेदभाव।
यकीन मानिए पिछली एक सदी से इन समस्याओं पर चर्चा हो रही है। पर सिरे से खत्म करने के लिए अभी तक कोई स्थायी समाधान नहीं मिला। कुछ कानून बने। इनके डर का असर थोड़ा बहुत कहीं कहीं ही होता है। यह समस्याएं कभी बुद्धिजीवियों के चंगुल में फंसी दिखाई देती हैं तो कभी कुछ संस्थाओं के। राजनीतिक पार्टियां महिलाओं की सुरक्षा को मुद्दा बनाकर महिलाओं का वोट बटोरती हैं। इन समस्याओं के नाम पर कइयों की रोज़्ाी रोटी चल रही है। ओह! समाधान मिल गया तो फिर किस समस्या पर चर्चा चलेगी। चर्चा नहीं चलेगी तो वह लोग क्या करेंगे जो चर्चा में माहिर हैं।
यानी मुद्दा हमेशा समस्या ही रहता है। समाधान चुनाव में जीते नेता की तरह नदारद रहता है। जैसे पांच साल बाद नेता दिखता है वैसे ही कभी कभी समाधान की कुछ झलकियां नजर आ जाती हैं। मेरा यह कतई मतलब नहीं है कि इन समस्याओं को खत्म कर सबको बेरोजगार कर दिया जाए। मेरी तो बस इतनी सलाह है कि एक एक कर हम समस्याओं का समाधान खोजें।
एक समस्या खत्म होगी तो दूसरी खुद ब खुद नज़्ार आएगी। केवल महिलाओं की समस्याएं ही खत्म करने की बात करेंगे तो एक सदी भी कम लगेगी। अगर इन समस्याओं के समाधान खोज लेंगे तो नई समस्याओं पर काम करना हमें थोड़ा ऊर्जावान भी करेगा। देखिए न पुराने मु्द्दों की चर्चा सुनने आए लोग औ बुद्धिजीवी खुद भी कई बार उबांसी भरते भरते कहते और सुनते हैं। कभी जाकर ऐसे भाषण, समारोह सुनिए बोलने वाले के अलावा सभी अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में ही व्यस्त रहते हैं।