खबर लहरिया न्यूज़ नेटवर्क महिला पत्रकारों का एक समूह है। इस हफ्ते पढ़ते है करवा चौथ को लेकर खबर लहरिया की एक वरिष्ठ पत्रकार का नजरिया।
करवाचैथ के लिए बाज़ार सज गए हैं। तरह-तरह के सजे-धजे करवे बिक रहे हैं। मिट्टी के करवे और पीतल के करवे। औरतों के लिए बने कई व्रत उपवासों में से एक सबसे चर्चित व्रत है करवाचैथ। या यूं कहें कि इसे चर्चित बना दिया गया है। फिल्मों, टीवी धारावाहिकों में करवाचैथ का इतना महिमामंडन किया गया है कि लगता है कि अगर औरतें यह व्रत नहीं करेंगी तो न जाने क्या अनर्थ हो जाएगा! इस प्रचार का फायदा बाज़ार नहीं उठाए ऐसा तो हो ही नहीं सकता। चूड़ी, कंगन, बिंदी, लहंगों से बाज़ार भरा पड़ा है। बाज़ार तो बाज़ार है। मुनाफे की सोच पर ही चलता है। मगर करवाचैथ के इस बाज़ारीकरण के बीच मीडिया की भूमिका पर सवाल खड़े होते हैं। औरतों को परंपराओं में बांधने की कोशिशें समाज तो काफी लंबे समय से करता आ रहा है। कभी व्रत के नाम पर, कभी पहनावे के नाम पर तो कभी व्यवहार की हदें तय करके। मगर मीडिया का रवैया ज़्यादा अखरता है। समाज में बदलाव का ज़रिया मीडिया ही तो है। रूढि़वादी परंपराओं को तोड़ने का काम भी मीडिया का ही है। फिर मीडिया में जब ऐसी खबरें आती हैं कि सुहागिनों के लिए सज गए बाज़ार। पति की लंबी उम्र के लिए रखेंगी सुहागिने व्रत। औरतों के इंटरव्यू छप रहे हैं। बैकग्राउंड में फिल्मी गाने चल रहे हैं। इतना आकर्षक बनाकर इसे पेश किया जा रहा है कि औरतों के भीतर पति प्रेम उमड़ने-घुमड़ने लगता है। और तो और मीडिया और बाज़ार इस कदर इस परंपरा को मज़बूत बनाने का काम कर रहा है कि गैर शादीशुदा लड़कियां भी अपने प्रेमियों के लिए छिप-छिपकर व्रत रखती हैं। मीडिया को ज़रूर एक बार अपनी कवरेज और सोच को पलटकर देखना चाहिए। विरोध न सही प्रचार से तो परहेज़ करे मीडिया।