विकास के नाम पर हर साल हजारों करोड़ रुपए खर्च होते हैं, मगर विकास नहीं होता। कई बार बजट का लेखा जोखा तैयार कर ऐसा दिखाने की कोशिश जरूर होती है कि विकास हो रहा है। मगर आंकड़ों से ठसाठस भरी ऐसी रिपोर्टें ज्यादातर कागजी ही होती हैं। कई बार आंकडे झूठे होते हैं तो कई बार सच्चे भी। फर्जी काम दिखाकर यह आंकड़े इकट्ठे कर लिए जाते हैं। ऐसे में विकास योजनाओं की जमीनी सफलता को जांचना कठिन काम हो जाता है।
कुछ महीनों पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें मनरेगा को सबसे सफल योजना बताया गया था। इस योजना को देखने से वाकई में यही लगता है कि गरीबों की गरीबी दूर करने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता। मगर जमीनी सच्चाई इस कागजी मूल्यांकन से अलग है। कुछ मामले हाल ही में सामने आए। उन्नाव में मनरेगा के खाते से फर्जी रकम निकालने का मामला सामने आया। एक व्यक्ति के नाम पर यह झूठी मजदूरी के पैसे जारी किए गए। पंचायत मित्र ने यह पैसे उस व्यक्ति से निकलवा लिए। इस व्यक्ति ने काम किया ही नहीं था। मगर इसके नाम मजदूरी जारी की गई। एक दूसरे तरह के घोटाले का मामला बांदा के बबेरु गांव का है। इसमें मजदूरों से काम तो करवा लिया गया मगर पैसा नहीं दिया गया।
मजदूरी देर से मिलने, मजदूरी कम मिलने और फर्जी मजदूर जारी करने के मामले मनरेगा में बड़े स्तर पर सामने आ रहे हैं। इस लेख में हम केवल मनरेगा का ही जिक्र कर रहे हैं। इसके पीछे दो कारण हैं, एक तो यह गरीबी हटाने के सबसे बड़े कारण बेरोजगारी को खत्म करने की योजना है, दूसरे यह योजना जिन महात्मा गांधी के नाम पर रखी गई है उनका जन्मदिन 2 अक्टूबर को है। ऐसा नहीं है कि केवल मनरेगा ही घपलेबाजी का शिकार है, बल्कि ज्यादातर सरकारी योजनाएं घोटालों के जाल में फंसी हैं।