ऋतु सक्सेना करीब आठ सालों से पत्रकारिता कर रहीं हैं. इस समय दैनिक हिन्दुस्तान में काम कर रही हैं. इससे पहले दैनिक भास्कर और इंडिया न्यूज़ में काम कर चुकी है।
अपनी बात की शुरूआत कहां से करूं समझ नहीं आ रहा। उस चंबल की घाटी से, जहां मैं पैदा हुई और जहां के बारे में ढेरों मनगढ़ंत कहानियां मशहूर हैं, जहां डाकू पैदा होते हैं। या फिर देश की राजधानी दिल्ली से, जहां आए चार साल हो चुके हैं और जहां की जिं़दगी की आदत हो गई है। जब दिल्ली में हो रहे बलात्कारों और दिन-दहाड़े लूट, कत्ल के बारे में सुनती हूं, तो सोचने को मजबूर हो जाती हूं कि कौन ज़्यादा बीहड़ है, दिल्ली या फिर चंबल?
शुरू से अब तक आमतौर पर छोटे शहरों या उभरते महानगरों की जि़ंदगी देखी। टीकमगढ़, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल, हरिद्वार, देहरादून और अब दिल्ली। छोटे शहरों के माहौल में मैंने कभी अपने को असुरक्षित महसूस नहीं किया, लेकिन दिल्ली में तो दिन भी डराते हैं और यहां रात तो खौफ का दूसरा नाम है।
ऐसा नहीं कि छोटे शहरों में लूट-मार, छीना-झपटी या महिलाओं के खिलाफ हिंसा नहीं होती थी। लेकिन दिल्ली में तो ऐसे लोग बेलगाम होकर घूम रहे हैं। घटनाएं-दुर्घटनाएं हर जगह होती हैं, लेकिन छोटे शहरों में मरहम लगाने वाले लोग होते हैं। कम से कम अपनी गली में लड़कियां घुसते ही सुरक्षित महसूस करती हैं। लेकिन यहां गली में घुसने के बाद भी कदमों की रफ्तार धीमी नहीं होती। पता नहीं कौन फब्तियां कस कर चला जाए। हद तो यह है कि मोहल्ले वाले तमाशबीन बनकर देखते रहेंगे।
इस उदासीनता के पीछे की वजह शायद यह है कि उन्हें पता है कि दिल्ली में रहनेवाली अधिकतर कामकाजी लड़कियां अन्य राज्यों से आई हैं। लिहाज़ा बगैर किसी प्रतिक्रिया के वे ऐसी घटनाओं से मुंह मोड़ लेते हैं। औरतों के खिलाफ अपराध पूरी दुनिया में होते हैं। देश के भीतर भी कोई राज्य या जि़ला ऐसा नहीं जहां यह आंकड़े शून्य हों। दिल्ली में दूसरी जगहों की तरह शासन-प्रशासन की लापरवाही तो है ही साथ में लोगों की संवेदनहीनता ऐसे अपराधियों के हौसले बुलंद करती है।