2014 में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता संभाली थी, तो देश की बहुत बड़ी जनसंख्या को उनसे उम्मीदें थी। इस जनसंख्या का एक हिस्सा वो युवा भी थे, जो अपने काम-धंधों में लगे थे, पर देश के विकास को भागते देखना चाहते थे। चाहे भी क्यों नहीं ‘सपनों का सौदागार’ विकास का सुंदर सपना जो दिखा रहा था। पुरानी सरकार की उदासनीता ने इस जीत का आकार बढ़ाने में बहुत मदद की। वो कहते हैं कि कभी ‘विजेता’ को विजेता उसका कमजोर प्रतिरोधी बना देता है।
इस विकास में किसी समुदाय या धर्म को कम करके आगे बढ़ने की बात नहीं थी, लेकिन ऐसा हुआ। दलित हिंसा, अल्पसंख्या के साथ ज्यादतियां हुई, जिसका विरोध भी हुआ। अखलाक, जुनैद, पहलू खान और अब रकबर खान की हत्या गोरक्षा के नाम पर हुई। हत्या भीड़ ने की और जिसका फायदा लेना बहत आसान है। भीड़ ने हत्या की पर ये एक संगठित भीड़ है, जो किसी फायदे के लिए बनाई गई है। उसके राजनीति फायदे है, और सत्ता की शह पर ये उग्र है। गोरक्षा के नाम पर हुई ये घटनाएं राज्यस्थान राज्य के अलवर क्षेत्र में हुई हैं। अलवर में ये घटनाएं होना का एक बड़ा कारण राजनीति है। मुस्लिम-मेव बहुल क्षेत्र अलवर मेवों के अलावा अनुसूचित जाति और जनजाति की तादाद भी बड़ी है। इस क्षेत्र में हिन्दुत्व की भावना को भड़काकर मुस्लिम- मेव और अनुसूचित जाति, जनजाति को अलग करके चुनाव जीते जा सकते हैं।
अगर इन घटनाओं के लिए आपको अब भी जिम्मेदार सरकार की गैरजिम्मेदार नहीं लगती तो दिमाग में थोड़ा जोर देकर सोचा जा सकता है, कि क्यों ये गोरक्षक कानून को हाथ में लेकर खुद का कानून चला रहे हैं। इन हिंसाओं पर कानून कार्रवाई की धीमी गति भी इन घटनाओं को बढ़ाने का एक तरीका है। हाल के दिनों में हुई भीड़ द्वारा हिंसा जिसमें बच्चा चोरी से गौरक्षा के नाम पर हुई मौतों का संज्ञान लेते हुए इन घटनाओं को तत्काल रोकने के लिए दिशानिर्देश दिए हैं, साथ ही केन्द्र सरकार को कानून बनाने को भी कहा गया है। अब देखना ये है कि क्या सरकार इन घटनाओं को रोकना चाहती है। वैसे भीड़ का ये चेहरा कम भयंकर होगा, ये कहना अभी मुश्किल है क्योंकि लोकसभा चुनाव पास है और सब राजनीतिक दल राजनीति कर रहे हैं।
साभार: अलका मनराल