देश के कुछ ऐसे भी हिस्से हैं जहां स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को नहीं बल्कि 31 अगस्त को ‘विमुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यह आश्चर्य की बात है कि देश के करोड़ों लोगों के लिए दूसरा स्वतंत्रता दिवस भी है। इसे समझने के लिए इतिहास में लौटते हैं।
बात 1871 की है। भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों ने तब ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ लागू करके कई जनजातियों को जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था। इसका एक कारण 1857 का विद्रोह भी समझा जाता है। जानकार मानते हैं कि इस विद्रोह में कई जनजातियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। विद्रोह से घबराए अंग्रेजों ने भारतीयों पर नज़र रखने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए दर्जनों कानून बनाए। लेकिन इन कानूनों से उन जनजातियों पर नियंत्रण पाना बेहद मुश्किल था जिनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था और जो हमेशा से यायावर रही थीं। इसलिए ऐसी जनजातियों को नियंत्रित करने के लिए इन्हें सूचीबद्ध किया गया और ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ के तहत इन जनजातियों के सभी सदस्यों को अपराधी घोषित कर दिया गया।
लगभग 180 सालों तक देश की व्यवस्था ने इन जनजातियों को कानूनी तौर पर जन्मजात अपराधी माना है। इसके चलते धीरे-धीरे समाज में भी इन जनजातियों की पहचान अपराधियों के रूप में ही स्थापित होती चली गई।
1871 में बने इस अधिनियम में समय-समय पर संशोधन किये गए और धीरे-धीरे लगभग 190 जनजातियों को इसके तहत अपराधी घोषित कर दिया गया। पुलिस में भर्ती होने वाले जवानों को यह पढ़ाया जाने लगा कि ये जनजातियां पारंपरिक तौर से अपराध करती आई हैं।
इसका नतीजा यह हुआ कि इन जनजातियों के लोग देश में जहां कहीं भी रह रहे थे, उन्हें अपराधियों के तौर से देखा जाने लगा और पुलिस को उनका शोषण करने की अपार शक्तियां दे दी गईं। देशभर में लगभग 50 ऐसी बस्तियां भी बनाई गईं जिनमें इन जनजातियों के परिवारों को बिलकुल जेल की तरह से कैद कर दिया गया। इन बस्तियों की चारदीवारी के बाहर पुलिस का पहरा रहने लगा। बस्ती के हर सदस्य को बाहर जाने और वापस लौटने पर पुलिस को हाजिरी देनी होती थी।
1871 में अपराधी घोषित हुईं इन जनजातियों की स्थिति आज़ादी के बाद भी नहीं सुधरी।
साभार:द वायर