जिला चित्रकूट। मानिकपुर में चुरेह काशेरूवा गांव की सुनीता ने जब अपने दस महीने के लड़के को एक प्राइवेट डाक्टर को दिखाया तब जाकर उन्हें पता चला कि वह अतिकुपोषित है। उसका इलाज 1 नवम्बर से एन.आर.सी. में चल रहा है। जिले के एन.आर.सी. की नर्स प्रभा सिंह ने बताया कि पिछले छह महीनों में यहां साठ बच्चे भर्ती हो चुके हैं।
जिला बांदा। पोषण पुनर्वास केंद्र की नर्स एस.के. डेविड ने बताया कि जिले में दस बेड के केंद्र में मुश्किल से कभी कोई बेड खाली रहता है। यूं तो आंगनवाड़ी कार्यकर्ता गांव गांव में बच्चों के पोषण और विकास पर नज़र रखती हैं, इन बच्चों को अस्पताल के बाल विशेषज्ञ डाक्टर ही केंद्र भेजते हैं। नर्स डेविड के अनुसार अकेले 2014 में जनवरी से अब तक तीन सौ साठ बच्चे यहां भर्ती किए जा चुके हैं।
इसके बावजूद, कई गांवों के आंगनवाड़ी केंद्रों में एक भी कुपोषित या अतिकुपोषित बच्चा दर्ज नहीं है। नरैनी ब्लाक के गांव करतल की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सीमा की रजिस्टर में सिर्फ तीन कुपोषित बच्चे दर्ज हैं। सीमा की तरह कई कार्यकर्ताओं ने बताया कि जिन बच्चों का वज़न कम होता है वे उन्हें सामान्य से दोगुना पोषाहार दे देते हैं।
बांदा के झब्बू पुरवा की सहायिका के अनुसार गांव में कोई कुपोषित बच्चा नहीं है पर वहीं की सुमन अपनी दो महीने की बच्ची को दिखाते हुए बताती हैं कि पैदा होने के बाद से वह डेढ़ से एक किलो की हो गई है।
उत्तर प्रदेश में दर्ज आंकड़ों में पैंतिस प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। 2011 की एक रिपोर्ट के अनुसार इनमें से लगभग बारह लाख बच्चे जो पांच साल से कम उम्र के हैं वे अतिकुपोषित हैं। इन बच्चों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत ‘पोषण पुनर्वास केंद्र’ (एन.आर.सी.) बनाने का प्रावधान है।
जिले अस्पताल में बने इस केंद्र पर अतिकुपोषित बच्चों का इलाज किया जाता है और उनके परिवारजनों को बच्चों के लिए सही आहार बनाने की जानकारी और प्रशिक्षण दिए जाने का नियम है। बच्चों का इलाज और उनके माता या पिता के लिए रहना, खाना और दिन का सौ रुपए खर्च भी दिया जाता है।
उत्तर प्रदेश में ऐसा पहला केंद्र प्रतापगढ़ जिले में 2010 में खोला गया था। चार साल बाद राज्य के पिछत्तर जिलों में से सिर्फ बीस जिलों में ये केंद्र बने हैं।