संस्था ‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ (सीएमआईई) के अनुसार, पुरुषों के लिए रोजगार में 0.09 करोड़ की वृद्धि हुई है, जबकि 0.24 करोड़ महिलाएं रोजगार के नक्शे से गायब हुई हैं।
हर जगह चाहे विज्ञापन एजेंसियां हो, स्टार्ट–अप हो, निर्माण स्थल हो, खेत और दुकान हो, रेस्तरां, विद्यालय और आंगनवाड़ी, हवाई जहाज उड़ान से लेकर महानगरों में टैक्सियां तक में महिलाएं काम करते हुए दिख रही हैं।
लेकिन अगर 2004-05 और 2011-12 के बीच भारत में नौकरी छोड़ने वाली महिलाओं की संख्या पर नजर डालें तो यह संख्या 1.96 करोड़ है। वर्तमान में केवल 27 फीसदी भारतीय महिलाएं श्रम शक्ति में हैं।
वर्ष 2013 में, दक्षिण एशिया के भीतर, पाकिस्तान के बाद भारत में सबसे कम महिला रोजगार की दर थी। वर्ष 2013 से पहले पिछले दो दशकों में, भारत में महिला श्रमशक्ति की भागीदारी 34.8 फीसदी से घटकर 27 फीसदी हुई है, जैसा कि अप्रैल, 2017 की विश्व बैंक की रिपोर्ट से पता चलता है।
विश्व बैंक की मार्च, 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक,ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों दोनों में भारत की महिला श्रमशक्ति भागीदारी (एफएलएफपी) दर अशिक्षित और कॉलेज ग्रैजुएट में उच्च है।
दरें बेहतर होने के कोई संकेत नहीं उदारीकरण के बाद के वर्षों में दरों में अधिक गिरावट आई है, हालांकि एक बढ़ती अर्थव्यवस्था में ज्यादा अवसरों के दरवाजे खुलने की उम्मीद होती है।
एक तार्किक बात यह है कि शिक्षा में वृद्धि से नौकरियों में वृद्धि होनी चाहिए। ग्रामीण भारत में, 67 फीसदी ग्रैजुएट लड़कियां काम नहीं करती हैं। कस्बों और शहरों में 68.3 फीसदी ग्रैजुएट महिलाओं के पास ऐसी नौकरियां नहीं हैं,जहां पैसे का भुगतान होता है। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी), की वर्ष 2015 की रिपोर्ट – वूमनस वॉयसेस, इम्प्लॉइमन्ट एंड आन्ट्रप्रनर्शिप इन इंडिया में बताया गया है।
यदि पुरुषों के बराबर महिलाएं भी अर्थव्यवस्था में भाग लेती हैं तो 2015 तक भारत जीडीपी में 60 फीसदी या 2.9 ट्रिलियन डॉलर तक वृद्धि कर सकता है। वर्तमान में, देश के सकल घरेलू उत्पाद में महिलाओं का योगदान केवल 17 फीसदी है, जो 37 फीसदी के वैश्विक औसत से नीचे है।
महिलाओं का काम करना उनकी निजी संपन्नता से भी जुड़ा हुआ है। एक महिला, जो घर में पैसे लाती है, उसकी परिवार में स्थिति मजबूत होती है। लेकिन शायद, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि महिलाओं पैसे भुगतान करने वाली नौकरियां चाहती हैं।
वर्ष 2011 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में पाया गया कि शहरी भारत में एक तिहाई से अधिक महिलाएं और ग्रामीण क्षेत्रों में आधे से अधिक महिलाएं जो घर के काम में संलग्न हैं, पैसे भुगतान वाली नौकरियां चाहती हैं। तो, अगर महिलाओं को नौकरी चाहिए, तो वे काम क्यों छोड़ रही हैं? कौन है, जो उन्हें काम करने से रोक रहा है?
लड़कियों और महिलाओं को काम करने, रोजगार योग्य नए कौशल सीखने के लिए अपने पिता, भाई, पति और कुछ मामलों में ग्राम पंचायत तक से अनुमति लेनी पड़ती है।
आश्चर्यजनक रूप से, बिहार, हरियाणा, जम्मू और कश्मीर और पंजाब में महिला श्रम शक्ति की भागीदारी की सबसे कम दर है। जबकि सिक्किम और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी राज्य, जहां महिलाओं को गांव की अर्थव्यवस्था की जिम्मेदारी रहती है, और ऐतिहासिक रूप से पुरुष काम के लिए राज्य से बाहर जाते हैं, वहां महिला श्रमशक्ति की भागीदारी दर उच्च है। परिवार और घरेलू कार्य के लिए जिम्मेदारी अन्य गंभीर बाधाएं हैं। महिलाएं या तो नौकरी स्वीकार नहीं करतीं हैं या फिर ‘पारिवारिक कारणों’ से छोड़ देती हैं, जैसा कि ‘हार्वर्ड केनेडी स्कूल’ के शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा युवा और एकल महिलाओं पर किए गए अध्ययन ‘एविडेंस फॉर पॉलिसी डिजाइन-2016’ में सामने आया है।
महिलाओं को लेकर सामाजिक मानदंड और माता–पिता, ससुराल और पति द्वारा कई तरह के नियमों को लागू करने से रोजगार की तलाश करने की उनकी क्षमता प्रभावित होती है। हार्वर्ड केनेडी स्कूल की रोहिणी पांडे कहती हैं, “ 2011 में भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण से पता चला है कि एक बड़ी संख्या में महिलाओं को बाजार या स्वास्थ्य केंद्र तक जाने के लिए परिवार के किसी सदस्य से अनुमति चाहिए। ऐसे में, यदि आप अकेले घर नहीं छोड़ सकते हैं तो नौकरी तलाशना बहुत कठिन है।”
फोटो और लेख साभार: इंडियास्पेंड