पिछले दस दिन में चौंकाने वाली खबरें देखने और सुनने को मिलीं हैं। उत्तर प्रदेश के जौनपुर के एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में नसबंदी के ऑपरेशन के दौरान डॉक्टर ने औरतों को बेहोशी की दवा दे दी और फिर खुद अस्पताल से चला गया। वहीं कानपुर में एक पिता के कंधों पर ही बीमार बेटे की मौत हो गई क्योंकि अस्पताल ने उसे भर्ती करने से मना कर दिया था। चित्रकूट के रामनगर और बाँदा के तिंदवारी के स्वास्थ्य केंद्र में सभी सेवाएं ठप पड़ी हैं। जब राज्य में स्वास्थ्य सेवाएं खुद ही बीमार हैं तो उनका इलाज कौन करेगा?
दरअसल हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में एक भीषण संकट नज़र आ रहा है। देश भर में करीब पांच लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए।
एक अनुमान के अनुसार, देश में करीब दो हज़ार लोगों पर एक डॉक्टर है और देश में डॉक्टरों की भीषण कमी है। देखा जाए तो सबसे गरीब और पिछड़े माने जाने वाले इलाकों में डॉक्टर और भी कम मौजूद हैं। ग्रामीण इलाकों में और छोटे शहरों में सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर लोगों को बहुत कम विशवास है, इसीलिए लोग इलाज के लिए बड़े शहरों में जाते हैं या फिर अस्पताल खुद ही उनको बड़े शहर में इलाज के लिए जाने को कहते हैं। बाँदा और चित्रकूट से हज़ारों की संख्या में लोग कानपुर, इलाहाबाद और लखनऊ जैसे शहरों में इलाज के लिए जाते हैं।
डॉक्टरों की कमी या उनकी लापरवाही के मामले आये दिन सामने आ रहे हैं। कानपुर और जौनपुर में जो हुआ, वो इसी का नतीजा है। देश में नए एम्स जैसे अस्पताल खोले जा रहे हैं, मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ाई जा रही हैं, लेकिन इसके अलावा स्वास्थ्य सेवाओं में गरीब, ग्रामीण लोगों की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशीलता लाने की भी ज़रूरत है और साथ ही स्वास्थ्य सेवाओं को एक धंधे के रूप में चलाने पर भी सख्ती की ज़रूरत है। निजी, सरकारी, ग्रामीण, शहरी स्वास्थ्य व्यवस्था में गैर बराबरी जब तक बनी रहेगी, तब तक स्वास्थ्य सेवाएं ठप रहेंगी।
बीमार स्वास्थ्य सेवाएं और मरते मरीज, आखिर कौन है इसका जिम्मेदार?
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