इहां के काशी, कंचन, गीता समेत कई लोगन के कहब कि इ काम सब लोग पीढ़ी से करत चलल आवत हव। लेकिन अब इ काम से एतना फायदा नाहीं हव कि चार परिवार चल सके। कहीं मिट्टी ना मिलि त ओके खरीदल जाला। फिर ओके अच्छा से सान के फिर जाके बनावल जाला। एक दिन में लगभग तीन सौ पूरवा बनावल जाला आउर ओके सुखवा के फिर आग के भट्ठी में पकावल जाला। अब त गोहरी भी एतना मंहगा हो गएल हव कि एक रूपया जोड़ मिलत हव। आग के भट्ठी में पकावत के केतन समय केतना पूरवा फूट जाला। केतना कच्चा रह जाला। ओमे से जवन कुछ तइयार होला ओके लेके दुकान में, गावं में, बस्ती में, आउर कई जगह देवल जाला। सौ पूरवा चालीस रूपया में बिकला। जवन कि तदयार होवे में दू तीन लग जाला।
अब पूरवा मे कमाई नाहीं हव। चार महीना त बीत गएल। लेकिन अब बरसात में बहुत परेशानी होई। काम भी ना चली। हमने के त कउनों नोकरी त हव नाहीं कि परिवार पल जाई। कभी कभी त दाल रोटी के सोचल जाला कि का होई। लेकिन दिन होवे या रात सबकर बीतला।