महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए कई कानून बने हैं। मगर उनसे क्या औरतों को मदद मिल रही है? यह सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि औरतों के दहेज, खाना खर्चा और तलाक के मुकदमे दस दस साल तक अदालतों की फाइलों में धूल खाते रहते हैं। कई बार लोग थककर अदलात जाना ही छोड़ देते हैं तो कई बार जब तक उन्हें न्याय मिलता है तक तक उनकी जिंदगी इतनी पीछे चली जाती है कि उसे दोबारा पटरी पर लाना मुश्किल होता है। कहा भी जाता है कि बहुत देर से मिला न्याय न के बराबर होता है।
जि़ला लखनऊ। शहादतगंज में रहने वाली ममता पिछले बारह सालों से अपने पति से खाना खर्चे की कानूनी लड़ाई लड़ रही है। उसकी शादी 20 नवबंर 2003 में हुई थी। लेकिन दो महीने बाद ही उसके पति ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया।
ममता अपने मायके आ गई। पति पर खाने खर्चे का केस लगा दिया। इस बीच उसे खाना खर्चा तो नहीं मिला लेकिन पति ने दूसरी शादी जरूर कर ली। हालांकि बिना तलाक दूसरी शादी कानून के खिलाफ है। ममता को यह पता है मगर वह कहती है कि पिछले बारह सालों में खाना खर्चा तो कानून दिला नहीं पाया, तो फिर इस मामले में क्या कर पाएगा। हमें तो बस खाना खर्चा ही मिल जाता तो काफी था। ममता की यह बात कहीं न कहीं महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा को रोकने के लिए बने कानूनों की पोल खोलते हैं। हालांकि ममता ने इस बीच ब्यूटी पार्लर का काम सीख लिया। वह घर में ही इस काम को करती है। वह कोशिश कर रही है कि अगर कहीं बाजार में दुकान मिल जाए तो वह वहां पर अपना ब्यूटी पार्लर खोल लेगी। इसके लिए वह सरकारी मदद मांगने की भी सोच रही है। मगर उसे डर है कि खाने खर्चे के केस को जब वह बारह सालों में नहीं जीत पाई तो दुकान खोलने के लिए सरकारी मदद पाने में उसे बीस साल लग जाएंगे ?
ममता पर अपनी दो बहनों का खर्चा भी चलाती है। शादी के बाद कुछ दिन वह भाई के साथ रही फिर भाई ने घर से निकाल दिया तो अब वह अलग रह रही है।