जिला बाँदा, ब्लॉक नरैनी, गाँव गोपरा 3 अक्टूबर 2016। गोपरा गांव में करीब 14 व्यक्तियों को टीबी की बीमारी है, जबकि इसी गांव में आठ लोगों की मौत टीबी से हो चुकी है। इस बीमारी के यहां फैलने का सबसे बड़ा कारण लोगों की गरीबी के साथ-साथ स्वास्थ्य विभाग की अनदेखी है। खबर लहरिया ने यहां दो बार रिपोर्टिंग की। जून 2016 में पहली बार की रिपोर्टिंग में स्वास्थ विभाग से इस समस्या पर कुछ करने का आश्वासन मिला था, जबकि अक्टूबर में दूसरी बार की रिपोर्टिंग में स्वास्थ्य विभाग की आंखें खुली और उन्होंने यहां जांच कैम्प लगाया, जिसमें उन्हें इस गांव से 14 टीबी के मरीज मिले।
जून 2016 में खबर लहरिया की टीम ने यहां पहली बार टी.बी का पर्दाफाश किया था। इसी गांव का रहने वाला कल्लू ठीक से सांस नहीं ले पाता था। एक बात को बोलने में कल्लू कई बार रुककर सांस लेता था। टीबी की बीमारी ने कल्लू को इतना कमजोर कर दिया था कि उसकी सारी हड्डियाँ दिखाई देने लगी थी। पर आज कल्लू की इस बीमारी के कारण मौत हो गई है। लेकिन इस गांव में टी.बी की बीमारी पीढ़ी दर पीढ़ी फैलती जा रही है। कल्लू की मां, पत्नी, भाई और भाभी की भी टी.बी से मौत हुई थी। आज कल्लू के पिता खुद भी टीबी से बीमार हैं और कल्लू के दो बच्चों की देखभाल करने वाला अब घर में कोई नहीं है।
खबर लहरिया कोन महीने में मुख्य चिकित्सा अधिकारी बांदा ने जांच करने का आश्वासन दिया था। इस बार हम फिर से मुख्य चिकित्सा अधिकारी के पास गए तो उन्होंने जांच करने का वादा किया। इसके बाद इस गांव में टीबी जांच कैम्प लगा।कल्लू के पिता मोहन खुद भी टीबी के बीमार हैं, वो बताते हैं – “आपके देखकर जाने के 15 दिन बाद ही कल्लू खत्म हो गया था। अभी भी गांव में कई टीबी के मरीज हैं। दुबले- पतले शरीर वाले मोहन खुद की बीमारी के बारे में बताते हैं कि “मुझे भी सांस लेने में परेशानी होती हैं। मुझे भी ये खांसी वाला टीबी का रोग ही है।”खबर लहरिया ने जब उनसे इस बीमारी के इलाज़ के बारे में पूछा तो अपनी गरीबी से बेबस मोहन ने कहा – “मेरे पास कितनी पूंजी नहीं है। हम गरीब आदमी हैं और हम सिर्फ बीमारी को भोगते हैं। मुझे टीबी की बीमारी चार-पांच महीने से है।”
गोपरा गांव के रामपाल से टीबी के मरीजों के बारे में पूछने पर बताया – “गांव में अभी भी 6 से 7 लोग टीबी के मरीज हैं जबकि टीबी से आठ से दस लोगों की मौत हो गयी है। 5 लोगों की मौत तो कल्लू के ही घर से ही हुई है। यहाँ कोई डॉक्टरों की टीम नहीं आती है, हमने इस बारे में गांव के प्रधान से कहा है। पर वह सुनते हैं, करते कुछ नहीं हैं। आशा (कार्यकर्ता) भी पास के गांव में तो आती हैं पर इस कस्बे में नहीं आती हैं।”
60 साल की लाली भी टीबी के मरीज हैं। वह अपनी बीमारी के बारे में बताते हैं – “खांसी ज्यादा होती है और बुखार भी आता रहता है। मुझे खांसी की परेशानी तो एक-दो साल से हो रही है। सरकारी अस्पताल में इलाज करा रहा हूं पर वो गोली दे देते हैं।” लाली से जांच करने के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि “कोई जांच नहीं कराई बस अस्पताल ही जाते हैं। हम गरीब आदमी हैं और खुद से जांच करने के लिए पैसे नहीं हैं।”
55 साल की ललिता भी टीबी से ग्रस्त हैं और हमें बताती हैं कि “मुझे टी.बी काफी दिनों से हैं। तीन-चार साल से पेट में दर्द भी रहता है।”
इसी गांव के 40 साल के बाबादीन यादव टीबी के कारण दिन-ब-दिन कमजोर होते जा रहे हैं, खांसी और कफ निकलने की बात कहते हुए बाबादीन यादव आगे बताते हैं – “एक-दो साल से ये परेशानी हो रही है। मेरा इलाज नये गांव से चल रहा है। मुझे आशा (कार्यकर्ता) ने डॉट्स (टीबी की दवा, जिसमें दवा देने वाला व्यक्ति मरीज को अपनी देखरेख में टीबी की खुराक खिलता है) की खुराक दी है, जिसमें सात गोली होती हैं। एक पत्ते में दी गई सात गोली एक बार की खुराक होती है। पर मैंने चक्कर आने के कारण ये खुराक छोड़ दी है क्योंकि दवा के साथ पीने को मेरे पास दुध नहीं होता था।” बाबादीन गरीबी के चलते दवा के साथ पौष्टिक आहार नहीं ले पा रहे हैं, जिसके कारण ही उन्होंने दूध के साथ पीने वाली दवाएँ छोड़ दी हैं।
गांव में मरीजों से बात करने के बाद हम इस बीमारी के महामारी बनने की वजह स्वास्थ्य विभाग से जाने की कोशिश करने के लिए कई स्वास्थ अधिकारियों से मिले। उनमें से ही एक एस.डी.एल.एस कृष्ण चन्द्र वर्मा हमें बताते हैं – “हमारे यहां लोग खुराक खाने नहीं आते हैं। वह आशा (कार्यकर्ता) के पास चले जाते हैं और जब हम वहां जाकर मरीजों से मिलते और उन्हें देखते हैं। तो मरीज बोलते हैं कि हम दवा खा रहे हैं और हम उनका कार्ड भी देखते हैं।”
बाँदा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के मेडिकल ऑफिसर डॉ नीरज सिंह टीबी की पहचान और इलाज के बारे में बताते हैं – “उपाय यही है कि यदि हमारा वजन घट रहा हो या शाम को बुखार आ रहा हो, तो हमें उसे अनदेखा न करके पास के स्वास्थ्य केन्द्र या जो भी आपके आस-पास अस्पताल हो वहां जाकर समस्या को हल करना चाहिए और अगर जांच करने के बारे में बोला जा रहा है तो लापरवाही नहीं करते हुए इसकी जांच कराएं। आजकल हर स्वास्थ्य केन्द्र या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बलगम जांच और एक्स रे की सुविधाएं हैं।”
इस गांव में लोगों को डॉट्स के बारे में जानकारी नहीं है, यह पूछने पर वह कहते हैं – “हां, डॉट्स हमारा बड़ा सफल कार्यक्रम है। पर इस गांव में पता नहीं क्या परेशानी है। हमारे कुछ जन जागरूकता और स्वास्थ्य शिक्षा वाले अभियान हैं। हम एक टीम इस गांव में भेजकर अवश्य कार्रवाई करेंगे।”
हमारी रिपोर्टिंग के फौरन बाद उन्होंने गांव के प्रधान के साथ मिलकर कार्रवाही करवाई। गांव में डिग्गी पीटकर जांच कैम्प लगा। इस कैम्प में स्वास्थ्य विभाग को 14 मरीज मिले, जिनकी टी.बी जांच की स्लाइड बनाई गई। बाकी मरीजों को दवाई दी गई। टीबी के प्रति जागरूकता कार्यक्रम किया गया। स्वास्थ्य विभाग अपनी निगरानी में इस गांव में इलाज चलाएगा। विभाग ने इस तरह की बीमारियों को खोजने के लिए खबर लहरिया से आगे भी मदद मांगी है।
रिपोर्टर- मीरा देवी गीता देवी
03/10/2016 को प्रकाशित