सौ से ज़्यादा सालों के बाद जन कल्याण के लिए लोगों की ज़मीन लेने के मुद्दे पर भारतीय सरकार ने फैसला किया। इस नए बिल को पास करने से साल 1894 के कानून को बदला जा रहा है। जिस बिल के पास होने से देश की बड़ी कंपनियां नाखुश हैं, वहीं इस बिल के छोटे किसानों और ग्रामीण लोगों के लिए अपने अलग नुकसान हैं।
भूमि अधिग्रहण उस प्रक्रिया को माना जाता है जब किसी ज़मीन को, मालिक के ना चाहते हुए भी, ले लिया जाए। कारण अधिकतर औद्योगिक विकास और जन कल्याण बताया जाता है। ऐसे में किन नियमों का पालन होगा, क्या मुआवज़ा दिया जाएगा और कैसे – यह बिल इस मुद्दे पर बात करता है। नए नियमों के अनुसार ग्रामीण इलाकों में ऐसी ज़मीन के लिए कीमत की चार गुणा राशि मालिक को मिलेगी। साथ ही, जितने लोगों की ज़मीन ली जा रही है उनमें से कम से कम अस्सी प्रतिशत की मंज़ूरी होनी चाहिए, खासकर जब खरीदने वाली कंपनी प्राइवेट हो।
इन सब प्रावधानों के बावजूद छोटे किसानों, दलितों और आदिवासियों के नज़रिए से बहुत सी कमियां रह गई हैं। इन नियमों में कहीं भी यह स्पष्ट नहीं है कि ‘जन कल्याण’ का क्या मतलब है। ग्राम पंचायतों को इसे तय करने में कोई अधिकार नहीं दिए गए हैं। ऐसी ज़मीन जिसमें केवल एक फसल होती है और जो सिर्फ बारिश पर सिंचाई के लिए निर्भर है, उसे इस बिल में कोई सुरक्षा नहीं दी गई है। भारत में पिछत्तर प्रतिशत उपजाऊ ज़मीन ऐसी ही है और ज़्यादातर दलितों और आदिवासियों की होती है। इसके अलावा सिंचाई से जुड़े प्रोजेक्ट, जैसे बड़े बांध, इस बिल में शामिल नहीं हैं।
ऐसे हालातों में, जबकि नए नियमांे के अनुसार बढ़ी हुई कीमतें हैं और लाखों के मुआवज़े की बात है, लाभ आबादी के उस दस प्रतिशत का है जो ज़मीन के मालिक हैं। बाकी लोगों के लिए ज़मीन का जाना अब भी आमदनी और आवास का गवाना है।
बहुत कुछ नया पर क्या बदलेगी स्थिति?
पिछला लेख