भारतीय सिनेमा सौ साल का हो गया। भारत में सिनेमा की शुरुआत सन 1913 में हुई। लेकिन तब फिल्मों में केवल पुरुष ही काम करते थे। औरतों की भूमिका भी पुरुष ही निभाते थे। बीस साल बाद 1933 में पहली बार एक औरत को फिल्मी पर्दे पर देखकर लोग चैंक पड़े। इस औरत का नाम था देविका रानी। फिल्मों के सबसे बड़े सम्मान ‘दादा साहेब फाल्के’ और उससे भी बड़ा सम्मान पद्मश्री उन्हें दिया गया। सिनेमा ने उन्हें नायिका का दर्जा दिया। देविका रानी ने फिल्मों में औरतों के लिए दरवाजा खोल दिया। सिनेमा जगत ने भी खुली बाहों से औरतों का स्वागत किया। समाज में औरतों की अच्छी औरत, बुरी औरत की बनी बनाई छवि ने यहां पर भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। घर की चहरदीवारी में बंद और समाज की बनाई हदों को मानने वाली औरत को नायिका का दर्जा मिला। वहीं इन हदों को पार करने वाली औरतों को खलनायिका का नाम दिया गया। बच्चे और पति के लिए अपना सबकुछ लुटाने वाली निरुपमा राय औरतों के लिए मिसाल बनीं। लेकिन पर्दे पर खुली जिंदगी जीने वाली हेलेन की छवि नायिका के रूप में स्थापित नहीं हुई। जबकि हेलेन एक बेहतर कलाकार थीं। सन नब्बे के आसपास टेलीविजन में आने वाले धारावाहिक रामायण की मंथरा को ऽाला कौन नहीं जानता। ललिता पंवार ने इस भूमिका को निभाया था। ललिता पंवार ने भी अच्छी औरत के ढांचे के उलट खलनायिका की भूमिका निभाई। हालांकि पहली बार फिल्मों में खलनायिका की भूमिका निभाने वाली कलाकार नादिरा फरहात थीं। समाज में किसी औरत को बुरी औरत का दर्जा देने के लिए आज भी उसकी तुलना ललिता पंवार से की जाती है।
फिल्मों की अच्छी औरतें बुरी औरतें
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बड़ी नदी साफ बाय छोट नदी परी बाय
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