20 अप्रैल को दिल्ली के जामिया मीलिया विश्वविद्यालय में एक खास फिल्म को दिखाया गया – मुज़्ाफ्फरनगर बाकी है। निर्देशक नकुल सिंह साहनी की ये फिल्म सितम्बर 2013 में मुज़्ाफ्फरनगर और शामली में हुई साम्प्रदायिक हिंसा, उसके पीछे की राजनीति और हिंसा के शिकार हुए लोगों के हालात – इन सब पर गहरी निगाह डालती है।
एक स्तर पर नकुल हमें दिखाते हैं कि किस तरह हिंदू लड़कियों की सुरक्षा और ‘लव जिहाद’ के ढोंग को हिंदू रूढ़ीवादी संगठनों के साथ-साथ मीडिया ने भी खूब भुनाया। फिल्म में ऐसे भाषण और इंटरव्यू दिखाए गए हैं जिनमें भाजपा के नेता अमित शाह और संगीत सोम लोगों में एक दूसरे के खिलाफ ज़्ाहर फैला रहे हैं। कैंपों में रह रहे हिंसा पीडि़तों के हालात और उनके प्रति सपा सरकार की बेपरवाही काफी संवेदनशीलता के साथ दिखाई गई है।
दूसरे स्तर पर नकुल की पिछली फिल्म ‘इज़्ज़्ातनगरी की असभ्य बेटियां’ की तरह इस फिल्म में भी लड़कियों की आवाज़्ा को महत्व दिया गया है। ये लड़कियां अपनी चर्चाओं से लव जिहाद के ढोंग, घर-समाज द्वारा उन पर लगाई गई दम-घोंटू पाबंदियों और वहीं पनपने वाली छेड़-छाड़ और हिंसा का बखूबी पर्दाफाश करती हैं।
एक नया नज़्ारिया जिसे फिल्म सामने लाई, वह है किसान आंदोलन और दलितों और गरीब मुसलमानों (जिनमें से कई खेत मज़्ादूर थे) उन पर अमीर जाट किसानों का दबदबा। सिर्फ कुछ दो घंटों में इतनी परतों को इतनी संवेदनशीलता के साथ खोलने के लिए नकुल और उनके साथियों की जितनी तारीफ की जाए, वो कम है। अंत में वह हमें ना-उम्मीदगी के साथ नहीं, बल्कि उन तमाम कार्यकर्ता साथियों के हौसले के साथ छोड़े जाते हैं जो मुज़्ाफ्फरनगर दंगों में सामाजिक सद्भाव और बराबरी का पैगाम लेकर आज भी घूम रहे हैं।
फिल्मी दुनिया – दंगों पर एक नई नज़र
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