अगर हम हिंसा का बदला हिंसा से लेते हैं तो यह एक तरह से जंगली न्याय व्यवस्था का हिस्सा होगा। अंग्रेजी साहित्यकार फ्रांसिस बेकन की यह बात इस ओर इशारा करती है कि विकसित समाज की न्याय व्यवस्था संवेदनशील होनी चाहिए। तो क्या याकूब मेनन की फांसी जंगली न्याय करने जैसा है? कुछ लोग याकूब की फांसी के खिलाफ थे। यह लोग फांसी जैसी सजा के खिलाफ हैं। इनका तर्क है कि मौत जैसी हिंसात्मक सजा किसी विकसित समाज का हिस्सा नहीं हो सकती।
मुंबई बम धमाकों में दोषी पाए गए याकूब मेनन की फांसी पर कई सवाल फांस बनकर अटक गए हैं। पहला सवाल, क्या विकसित समाज में फांसी के लिए जगह होनी चाहिए? हिंसा के बदले हिंसा, हिंसा और असंतोष को बढ़ावा देती है। दूसरी बात जिंदगी जीने का अधिकार हमें संविधान ने दिया है। क्या इसे छीनने का हक सरकार को है? कानून व्यवस्था क्या इस तरह के जंगली न्याय को अपने फैसलों का हिस्सा बना सकती है? तीसरी बात आतंकवाद या बलात्कार जैसे अपराध समाज में एक मानसिकता के प्रतीक हैं। आतंकवाद एक एजेंसी है जहां याकूब जैसे लोग केवल एक मोहरा हैं। इन्हें फांसी देने से आतंकवाद को चुनौती नहीं दी जा सकती है। चैथी बात न्याय की प्रक्रिया में मानवीय गल्तियां होने की गुंजाइश रहती है। फिर याकूब के मामले में तो उसने खुद ही आत्मसमर्पण किया था, जांच पड़ताल में मदद की थी। इसके बावजूद अगर उसे फांसी की सजा मिलती है तो न्याय प्रक्रिया के मकसद पर सवाल खड़े होते हैं।
याकूब की फांसी से पहले भी और बाद में भी यह बहस चल रही है। ऐसी सजाओं के खिलाफ लड़ाई जारी है। यह तब तक जारी रहेगी जब तक कि न्याय व्यवस्था खुद भी क्रूर सजा देने के खिलाफ न हो जाए।