“पोस्टमार्टम हाउस के पीछे से भयंकर बदबू आ रही थी। वहां पड़े शवों को उठाने तक की फुर्सत प्रशासन के पास नहीं थी। स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि “30-40 शव अब भी पड़े हैं, लेकिन प्रशासन इसे छुपाने की कोशिश कर रहा है।”
रिपोर्ट – श्यामकली, लेखन – सुचित्रा
महाकुम्भ की कवरेज के लिए प्रयागराज जाने का मौका मिला। यह सफर सिर्फ रिपोर्टिंग तक सीमित नहीं रहा, बल्कि एक पत्रकार के संघर्ष, आम श्रद्धालुओं की पीड़ा, प्रशासन की लापरवाहियों और महाकुंभ में छुपे व्यापारिक खेल को भी उजागर करने वाला साबित हुआ।
महाकुम्भ तक का सफर
फरवरी 2025 की एक सुबह, जब घर से 4 बजे निकले तो अंदाजा नहीं था कि यह सफर सिर्फ एक रिपोर्टिंग असाइनमेंट नहीं, बल्कि एक अनुभव बनने वाला है। बस स्टॉप से हमारी बस 10:30 बजे प्रयागराज के सिविल लाइन के नए बस स्टैंड पहुंची। वहां से हमें फाफामऊ जाना था, लेकिन आगे की यात्रा उतनी आसान नहीं थी।
बस स्टैंड से पैदल चलते हुए हम (मैं और मेरी सहेली शिवदेवी) आगे बढ़े। तभी एक बाइक चालक, जो सवारी ढोता था, मिला। उसने पूछा, “कहां जाना है?” हमने कहा, “फाफामऊ।” उसने तुरंत कहा, “छोड़ देंगे, बस 500 रुपए लगेंगे।” यह सुनकर हमने मोलभाव किया, लेकिन मन में यह भी चल रहा था कि मोटरसाइकिल में जाना सुरक्षित रहेगा या नहीं। अंततः, हमने उसे मना कर दिया और रिक्शे से ही जाने का फैसला किया, चाहे दूरी कितनी भी लंबी क्यों न हो।
महाकुम्भ में लूटखसोट: किराया चार गुना
थोड़ी दूर पैदल चलने के बाद हमें रिक्शा मिला। हमने फाफामऊ तक का किराया तय किया, लेकिन जिस रिक्शे वाले से 400 रुपए में बात हुई थी, उसने मुश्किल से एक किलोमीटर दूर ही उतार दिया।
उसने कहा, “वीआईपी घाट दो कदम है,” लेकिन असल में वहां तक पहुंचने में हमें तीन घंटे लग गए।
यहां हमें पहली बार समझ आया कि प्रयागराज में बाहरी लोगों को ठगने का एक संगठित सिस्टम है। जो भी श्रद्धालु आता है, उससे चार गुना किराया वसूला जाता है, लेकिन मंजिल तक छोड़ा नहीं जाता।
महाकुंभ में किसान का दुःख
वीआईपी घाट पर हमने एक किसान से बात की। वह दुखी था। उसने बताया, “मैं यादव जाति से हूं। हमारी 10 बीघा जमीन थी, जो अब महाकुंभ क्षेत्र में आ गई। अगर हम राई बोते, तो कम से कम ₹50,000 कमा सकते थे। लेकिन प्रशासन ने हमें सिर्फ ₹2200 प्रति बीघा मुआवजा दिया।”
उसने एक और बड़ा खुलासा किया—”जो जमीन हमें ₹2200 में अधिग्रहित की गई, उसे प्रशासन ने वीआईपी लोगों को ₹3 लाख प्रति बीघा किराए पर दिया।” किसान अगर खुद उस जमीन को किराए पर देता, तो लाखों कमा सकता था। लेकिन मजबूरी में उसे औने-पौने दाम पर जमीन प्रशासन को देनी पड़ी।
महाकुम्भ में महिला की कहानी: भगदड़ के दर्द से भरी आंखें
प्रयागराज से नौनी जाते समय एक महिला से मुलाकात हुई। वह कुंभ मेले में साबुन कंपनी का प्रचार कर रही थी। जब हमने भगदड़ की चर्चा की, तो उसकी आंखों में आंसू आ गए।
उसने बताया, “दो दिन तक मेरे पेट में अन्न का एक दाना नहीं गया था। जब भी आंखें बंद करती, भगदड़ में मरते लोग दिखते।”
महाकुम्भ भगदड़, दिल दहला देने दृश्य
“सिर्फ पुलिस और एंबुलेंस ही दिख रही थीं, बाकी लोग इधर-उधर भाग रहे थे।”
“एक एंबुलेंस में 20-20 शव ठूंसकर अस्पताल ले जाया जा रहा था।”
“अस्पताल के बाहर बने अस्थायी संस्कार स्थल पर तुरंत अंतिम संस्कार कर दिया जाता था, ताकि सरकार बदइंतजामी छुपा सके।”
महिला का दर्द था कि “सरकार चाहती तो मृतकों के परिजनों से मिलवाकर उचित संस्कार करा सकती थी, लेकिन यहां सब कुछ छुपाने की कोशिश हो रही थी।”
अस्पताल का कड़वा सच: शव सड़ रहे, प्रशासन चुप
जब हम स्वरूप रानी हॉस्पिटल के पोस्टमार्टम हाउस पहुंचे, तो वहां 6-7 शव रखे थे। जब हमने पूछा कि कितने शवों का पोस्टमार्टम हुआ, तो स्टाफ ने टालमटोल किया।
फिर जब हम आगे बढ़े, तो पोस्टमार्टम हाउस के पीछे से भयंकर बदबू आ रही थी। वहां पड़े शवों को उठाने तक की फुर्सत प्रशासन के पास नहीं थी। स्थानीय पत्रकारों ने बताया कि “30-40 शव अब भी पड़े हैं, लेकिन प्रशासन इसे छुपाने की कोशिश कर रहा है।”
महाकुम्भ में वीआईपी एरिया में अमीरों के लिए सुविधा, गरीबों के लिए संघर्ष
जब हम वीआईपी घाट पहुंचे, तो वहां का नजारा ही अलग था। पूरे महाकुंभ में कहीं भी आम श्रद्धालुओं के लिए साधन न मिलें, लेकिन वीआईपी लोगों के लिए फॉर्च्यूनर गाड़ियां और विशेष बसें दौड़ रही थीं।
आम लोग तंबू में रातें गुजार रहे थे, लेकिन वीआईपी लोगों के लिए एयर कंडीशन्ड टेंट, रेस्टोरेंट और शानदार सुविधाएं उपलब्ध थीं। संगम जाने के लिए आम लोग घंटों लाइन में खड़े थे, जबकि वीआईपी सीधे एस्कॉर्ट के साथ जा रहे थे। यहां हमें अहसास हुआ कि कुंभ अब सिर्फ श्रद्धालुओं का मेला नहीं, बल्कि एक पैसों का खेल बन चुका है।
महाकुम्भ व्यवस्था की पोल: संगम पर अव्यवस्था और भगदड़
बसंत पंचमी के दिन जब हम संगम गए, तो वहां इतनी भीड़ थी कि घुसने का कोई रास्ता नहीं था। प्रशासन ने न कोई सही एंट्री प्वाइंट बनाया था, न ही कोई दिशा-निर्देश दिए थे। लोग एक-दूसरे को धक्का दे रहे थे, कोई भीड़ में गिर रहा था। भगदड़ जैसे हालात बन गए थे। अगर यहां भी कोई बड़ा हादसा होता, तो प्रशासन इसे भी छुपाने में लग जाता।
महाकुम्भ में स्थानीय दुकानदारों की मजबूरी
महाकुंभ में सिर्फ श्रद्धालु ही नहीं, बल्कि स्थानीय लोग भी परेशान थे। एक ठेले वाले ने बताया—
“मुझे ठेला लगाने के लिए ₹20,000 रिश्वत देनी पड़ी। मेरे पूरे सामान की कीमत ही ₹20,000 नहीं थी। इसलिए मैंने ठेला ही हटा लिया।”
यानी, महाकुंभ अब आम लोगों के लिए नहीं, सिर्फ बड़े व्यापारियों और वीआईपी के लिए ही रह गया है।
महाकुम्भ में पत्रकारिता का संघर्ष: सच्चाई दिखाने पर धमकियां
जब हम अस्पताल में भगदड़ के घायलों से बात कर रहे थे, तब तीन सफेद ड्रेस वाली महिलाएं और चार पुरुष आए। उन्होंने हमारे हाथ से फोन छीन लिया और कहा, “आपको यहां आने की परमिशन किसने दी?”
हमने तर्क दिया कि “पत्रकारों को भला किसकी परमिशन चाहिए?” लेकिन वे नहीं माने और हमारे फोन से सारे वीडियो डिलीट कर दिए।
अगर हम पहले से वीडियो न भेज चुके होते, तो हमारे पास कोई सबूत ही नहीं बचता।
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