चुनाव का समय आते ही नेताओं की नेतागिरी का बाज़ार और गरम हो जाता है। फिर बात उत्तर प्रदेश की हो तो यहां तो नेता बनना सबसे फायदेमंद है। पैसा और सत्ता पाने का सबसे आसान रास्ता। प्रधान पद के चुनाव चल रहे हैं। जीत गए तो क्या कहने, हार गए तो भी नाम तो होगा ही। एंक बार नाम हो जाए तो कभी न कभी सत्ता की गलियों में घूमने का मौका मिल ही जाएगा।
चुनाव क्यों होता है? अरे भाई, हमारे संविधान में लिखा है कि अपना देश, राज्य और गांव चलाने के लिए जि़म्मेदार व्यक्ति तो चुनना ही पडे़गा। लेकिन अब चुनाव अपना घर, अपना वंश और अपनी पीढ़ी चलाने के लिए लड़ा जाता है। चुनाव बहुत अच्छा और बड़ा कारोबार बन चुका है। प्रत्याशियों के खडे़ ह®ने में ही, होड़ लग जाती है। बाप, बेटा, भाई, ननद, भौजाई, देवरानी, जेठानी भी एक दूसरे के खिलाफ खडे़ हुए। जो पैसेवाला हुआ वही जीतता है। अगर उसकी जाति की सीट भी न हुई तो वह उस जाति के लोगों को खडा़ करके चुनाव लड़ता है और पूरी बागडोर वही संभालता है। जो एक बार जीत गया उसी के परिवार के लोग अपना हक जन्म जनमान्तर तक जमाए रहते हैं।
चुनाव में प्रशासन की मौजूदगी के बाद भी आचार संहिता की धज्जियां खुलेआम उड़ाई जा रही हैं। जैसे महोबा जि़ले में बूथ के सामने प्रत्याशियों के बैनरों की लम्बी कतारें दिखीं, दरवाजे़ बंद करवा कर वोट डलवाए गए, किसी विशेष को वोट देने का दबाव, तो कहीं साड़ी और कहीं दारू पिलाने का लालच दिया गया, बांदा जि़ले में प्रचार में नियम से ज़्यादा हज़ारों गुना बढकर पैसे खर्च किए गए। डीडीसी के प्रचार में करोड़ों रूपए खर्च किए गए।
हालांकि यह पैसा मिलता है राजनीतिक दलों से। राजनीतिक दल इन्हें पैसा देते हैं अगर जीत गए तो फिर उस दल की तारीफों के पुल बांधने का काम यही लोग करते हैं। एक बार जीते नहीं कि विकास के करोड़ों रुपए उनकी जेब में। सो इतना पैसा खर्च करने के बाद भी फायदा ही फायदा है।
प्रधान का पद, बाप खरीदे फिर पोता भी चलाए
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