कहते हैं अगर हौसले बुलंद हो तो कोई भी बाधा हमें कामयाब होने से रोक नहीं सकती। यह साबित किया है महाराष्ट्र के नागपुर जि़ले के एक छोटे से गांव मुर्ती के रहने वाले अषोक मुन्ने ने। अषोक का 2008 में ट्रेन दुर्धटना में दाहिना पैर भले ही चला गया लेकिन हिम्मत नहीं। वे एक सेमिनार में भाग लेने लखनऊ आए तो खबर लहरिया की पत्रकार के साथ अपने अब तक के सफर के अनुभव को बांटा –
या तो मर जा या सब कुछ भूलकर आगे बढ़!
मेरे पिता रामलाल मुन्ने खेतीबाड़ी करते हैं। मेरी दो छोटी बहनें हैं। मैं पहले पिता के साथ ही खेतीबाड़ी करता था। साथ ही जिम भी जाता था और योग-आसन भी करता था। लेकिन जब मुझे अपना पैर गवाना पड़ा तो हताश हो गया। दो साल बिस्तर पर रहा। सारे दोस्त मुझ से अलग हो गए। परिवार की स्थिति पहले से ही दयनीय थी। कुछ खेत बेच कर मेरा इलाज कराया लेकिन पूरा इलाज नहीं करा पाए। जिससे पैर सड़ने लगा था। तीन बार आॅपरेषन हुआ। एक दिन मैं अस्पताल के आंगन में ही था तो एक संस्था की कार्यकर्ता मालती षास्त्री की नज़र मुझपर पड़ी। मेरी बात सुनने के बाद उन्होंने ही मेरा इलाज कराया और नकली पैर लगवाया। वह इंद्रधनुष संस्था में काम करती हैं जो विकलांगों के लिए काम करती है। षुरु के एक साल मैने कार ड्राइवर की नौकरी की। साथ ही फिर से जिम और योग से जुड़ा। मैं कई दौड़ों में हिस्सा ले चुका हूं। मेरी स्पीड सौ मीटर प्रति बारह सेकेंड है। मैंने 2012 में मीरा पीक पहाड़ भी चढ़ा है। जिसकी ऊंचाई इक्कीस हज़ार दो सौ सैंतालिस फीट है। मेरा सपना ऐवरेस्ट चढ़ना है और ओलम्पिक में भाग लेना है। मुझपर असीम अरोड़ा फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसका नाम छलांग है।अषोक का मानना है कि इंसान मन से विकलांग होता है षरीर से नहीं। हमारे अंदर जुनून होना चाहिए या तो मर जा या सब कुछ भूलकर आगे बढ़!
पैर खोया, हौसला नहीं
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