एक विश्लेष्ण के अनुसार, 11 राज्यों के 26 मामलों में यह देखने को मिला है कि सरकार द्वारा खासी और बांध जैसे विकास परियोजनाओं के लिए जनजातीय लोगों की सहमति लिए बिना बल्कि उनकी सहमती को अनदेखा करके वन भूमि अधिग्रहण की जा रही है।
भूमि सम्मेलन वॉच के अनुसार, इस समस्या से सम्बंधित कोई भी सुनवाई नहीं की गयी या उन स्थानों पर की गई जहां प्रभावित जनजातियां शामिल ही नहीं हो सकीं। इन जमीनों के विवादों को लेकर करीब 118 मामले दर्ज किए जा चुके हैं जिनमें से किसी पर वनअधिकार अधिनियम(एफआरए) के तहत कोई कार्यवाई नहीं की गयी है।
वहीँ, जहां इन मामलों पर कार्यवाही प्रस्तावित थी वहां समुदायों द्वारा दावे करने और उनको साबित करने में देरी हुई।
कई स्वतंत्र अध्ययन और सरकार के स्वयं के आंकड़ों से पता चलता है कि एफआरए के कार्यान्वयन के एक दशक के बाद भी कानून खराब ही है।
आदिवासी मामलों के विभाग के हवाले से, अक्टूबर 2017 तक लगभग 1.8 मिलियन भूमि, 5.7 मिलियन हेक्टेयर वन भूमि पर सरकारी मुहर लगी हैं। यह भूमि, जंगल का लगभग 14% है जिस पर वनवासियों का अधिकार होना चाहिये था।
वन वासियों के लिए काम करने वाले एक समहू का मानना है कि वनवासियों को पूरे देश में कम से कम 40 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र पर अधिकार होना चाहिए।
इस बीच, नासिक से मुंबई 40 किलोमीटर तक 40,000 से ज्यादा किसानों और वनवासियों ने पैदल मार्च किया ताकि वे महाराष्ट्र सरकार को वन भूमि पर अपने अधिकारों की पहचान करा सकें जो पीढ़ी दर पीढ़ी उनसे छुटती जा रही है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 12 मार्च, 2018 को यह घोषणा की थी कि राज्य में एफआरए के तहत जमीन पर अधिकार होने का दावा करने वाले सभी लंबित मामले अगले छह महीनों में सुलझा दिए जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
एक विश्लेष्ण के अनुसार, दर्ज 118 मामले, जो जमीनी संघर्ष से जुड़े हैं वे 480,000 हेक्टेयर भूमि से अधिक हैं और यह मामले, 1.3 मिलियन लोगों को प्रभावित करते हैं।
फोटो और लेख साभार: इंडियास्पेंड