आजकल ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य की सुविधाएं लगभग पूरी तरह से सरकारी तंत्र का हिस्सा बन गई हैं। ज़्यादातर बच्चे अब अस्पताल में पैदा होते हैं और अस्पताल में ही मां और बच्चों के देखभाल की सुविधाएं उपलब्ध करवानी होती हैं। ऐसे में कुछ पारम्परिक तरीके बहुत पीछे छूटते जा रहे हैं और दाई की जगह सरकारी तंत्र में ए.एन.एम. या ममता ने ले ली है।
कई इलाकों में दाइयां समाज के सबसे पिछड़ेे तबकों से आती थीं लेकिन बच्चा पैदा करना, नाल काटना और औरत को नहलाने का काम करने पर उन्हें घरों से मान -सम्मान और तोहफे मिलते। बिहार राज्य के बोधगया में दाइयों की मूर्ती की पूजा भी होती थी। बच्चा पैदा करवाने के समय वो औरतों के शारीरिक और मानसिक पीड़ा को समझती थीं, इस वजह से उनका रवैया ज़्यादातर डाक्टर और नर्स से बिलकुल अलग होता। कई बार जटिल प्रसव को दाइयां कम सुविधाओं के रहते संभाल लेतीं। ऐसे में यह बेहद अफसोस की बात है कि दाइयों का यह काम अब लगभग खत्म हो गया है। कई विकसित और अमीर देशों में लोग अब पारम्परिक तरीकों और दाइयों को दोबारा काम पर लाने की कोशिश कर रहे हैं।
ग्रामीण इलाकों में या शहर में लोगों को सुरक्षित, साफ और विश्वसनीय स्वास्थय सुविधाओं की ज़रूरत है। बच्चा पैदा करते समय दाइयां यह सुविधा उपलब्ध कराती थीं। लेकिन सरकारी तंत्र अब पूरी तरह से हावी हो गया है। एक तरफ लोगों में काफी डर पैदा कर दिया है, कि अगर अस्पताल में प्रसव नहीं होगा, तो मां और बच्चे को खतरा ज़्यादा है। जबकि सरकारी प्रसव की सुविधाओं में कई कमियां नज़र आती हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि हम स्थानीय और पारम्परिक हुनर और ज्ञान को अपने इलाकों में खत्म न होने दें।