आज से लगभग तेरह सौ साल पहले पारसी लोग भारत पहुंचे। आज भी पारसी समुदाय के लोग इस दिन को याद करते हैं और अपना नया साल, या नवरोज़ मनाते हैं।
पारसी समुदाय की गिनती भारत में अल्पसंख्यकों में होती है। देश में इनकी संख्या घटकर अब 60,000 हो गई है। ज़्यादातर पारसी लोग संपन्न और पढ़े- लिखे हैं, इनमें से कई परिवार बड़े व्यापारी घराने चलाते हैं। टाटा, गोदरेज, वाडिया जैसे परिवार देश के सबसे पैसेवाले लोगों में हैं। लेकिन समुदाय के बाहर शादी न करने की वजह से संख्या बढ़ाना मुश्किल हो गया है।
पारसी लोग उदार होते हैं और खाने के खूब शौक़ीन। नवरोज के दिन पारसी परिवारों में बच्चे, बड़े सभी सुबह जल्दी तैयार होकर, नए साल के स्वागतकी तैयारियों में लग जाते हैं। इस दिन पारसी लोग अपने घर की सीढ़ियों पर रंगोली सजाते हैं।
चंदन की लकड़ियों से घर को महकाया जाता है। यह सब कुछ सिर्फ नए साल के स्वागत में ही नहीं, बल्कि हवा को शुद्ध करने के उद्देश्य से भी किया जाता है। इस दिन पारसी मंदिर अगियारी में विशेष प्रार्थनाएँ संपन्न होती हैं।
नवरोज के दिन भर घर में मेहमानों के आने-जाने और बधाइयों का सिलसिला चलता रहता है।
इस दिन पारसी घरों में सुबह के नाश्ते में ‘रावो’ नामक व्यंजन बनाया जाता है। इसे सूजी, दूध और शक्कर मिलाकर तैयार किया जाता है।
नवरोज के दिन पारसी परिवारों में विभिन्न शाकहारी और माँसाहारी व्यंजनों के साथ मूँग की दाल और चावल अनिवार्य रूप से बनते हैं। विभिन्न स्वादिष्ट पकवानों के बीच मूँग की दाल और चावल उस सादगी का प्रतीक है, जिसे पारसी समुदाय के लोग जीवन भर अपनाते हैं।
नवरोज के दिन घर आने वाले मेहमानों पर गुलाब जल छिड़ककर उनका स्वागत किया जाता है। बाद में उन्हें नए वर्ष की लजीज शुरुआत के लिए ‘फालूदा’ खिलाया जाता है। ‘फालूदा’ सेंवइयों से तैयार किया गया एक मीठा व्यंजन होता है।
जो बात इस पारसी नववर्ष को खास बनाती है, वह यह कि ‘नवरोज’ समानता की बात करता है। इंसानियत के धरातल पर देखा जाए तो नवरोज की सारी परम्पराएं महिलाएं और पुरुष मिलकर निभाते हैं। त्यौहार की तैयारियां करने से लेकर त्यौहार की खुशियां मनाने में दोनों एक-दूसरे के पूरक बने रहते हैं।
पारसियों ने मनाया अपना नया वर्ष…
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