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परंपरा की पाबंदी का शिकार औरतें

औरतें अगर बनी बनाईं परंपराएं तोड़ें या नियम तोड़ें तो उन्हें हिंसा का सामना करना पड़ता है। उनकी सामाजिक छवि एक बुरी औरत की बनाई जाती है। यह हिंसा मौखिक और शारीरिक – किसी भी तरह की हो सकती है।

छत्तीसगढ़ के एक गांव में एक महिला सरपंच की हत्या उसी के भाई ने कर दी। कारण परंपरा को तोड़ना था। इस औरत ने अपनी मां का अंतिम संस्कार किया था। यह बात भाई को कुबूल नहीं थी। जबकि मां की देखभाल भी इसी औरत ने की थी। भाई ने सालों पहले बूढ़ी मां को घर से निकाल दिया था। यानी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेने वाले भाई को परंपरा का टूटना बुरा लगा। ग्रामीण इलाकों में महिलाएं हल चलाने को छोड़कर खेती का सारा काम करती हैं। माना जाता है कि अगर औरतें खेत जोतेंगी तो अपशकुन होगा। प्रकृति नाराज होगी। ज्यादातर औरतें इस मान्यता के पीछे क्या कारण है, नहीं जानती हैं। लेकिन इसे परंपरा मानकर इस पर सदियों से चल रही हैं।

दोनों ही घटनाओं से एक बात तो साफ है कि औरतें जिम्मेदारी से सारा काम तो करें लेकिन जहां उन्हें कोई खास दर्जा मिलनेवाला हो वहां से उन्हें पीछे खींच लिया जाता है। जैसे किसान और हल को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। यानी किसान वही जो हल चलाए इसलिए औरत हल न जोते। बूढे मां-बाप की सेवा जरूर करे लेकिन जायदाद की वारिस औरतें नहीं होती हैं। ऐसी ही न जाने कितनी परंपराओं और धारणाओं का सामना सदियों से औरतें कर रही हैं। जब इसे तोड़ने के लिए आगे बढ़ती हैं तो उन्हें एक बुरी औरत का दर्जा देकर उन पर हिंसा की जाती है।