राजस्थान सरकार ने हाल ही में पंचायत चुनाव के लिए एक नया मानक तय किया। नए मानक के अनुसार राज्य में आठवीं पास लोग ही सरपंच का चुनाव लड़ पाएंगे। सरकार का तर्क है कि सरपंच को फंड का ब्यौरा रखना पढ़ता है। इसलिए अनपढ़ लोग प्रधान नहीं बन सकते। क्या सरकार यह कहना चाहती है कि अभी तक हुए कई अनपढ़ प्रधान असफल रहे? क्योंकि सरकार ने सारी ग्रामीण योजनाएं इन्हीं पंचायतोें के जरिए ही चलाई हैं। दूसरा सवाल उठता है कि आखिर पंचायत चुनावों की शुरुआत क्यों की गई थी? पंचायत चुनावों की सरकारी परिभाषा देखें तो इसके अनुसार सत्ता का विकेंद्रीकरण, यानी सत्ता को केंद्र सरकार से शुरू करके गांव स्तर तक अलग अलग बांटना था। विकास को देश के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने की व्यवस्था इन्हीं पंचायतों के द्वारा की गई थी। लेकिन राजस्थान सरकार का यह फैसला पंचायत चुनाव के उद्देश्य पर खरा नहीं उतरता।
औरतों, दलितों, हाशिए पर पड़े लोगों का शैक्षिक स्तर पुरुषों, ऊंची मानी जानेवाली जातियों से बहुत कम है। ऐसा करके सरकार ने न केवल चुनाव लड़ने के अधिकार को सीमित किया है बल्कि विकास की पहुंच को भी सीमित किया है। दूसरी बात क्या आठवीं पास सर्टिफिकेट होना शिक्षित होने का आधार हो सकता है? हमें शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन की हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट को देखना चाहिए। रिपोर्ट की मानें तो देश के आठवीं पास छात्र छात्राएं, दूसरी कक्षा की किताबों का पाठ नहीं पढ़ पाते हैं। सौ तक गिनती भी नहीं पढ़ पाते हैं। ऐसे में सर्टिफिकेट को चुनाव लड़ने का आधार माना जाना क्या उचित होगा?
पंचायत चुनाव के नए मानक पर सवाल
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