उदारवादी राजनीति के एक मशहूर नेता ने कहा था कि देरी से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। इन दिनों महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा के बाद चलने वाली लंबी कानूनी प्रक्रिया पर यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है। पूरे देश में महिलाओं के साथ बलात्कार, हत्या और छेड़खानी जैसी घटनाएं चाहें दिल्ली हो या कोई गांव सभी जगह घट रही हैं। इस हफ्ते खबर लहरिया ने बदायूं मामले समेत उत्तर प्रदेश के जिलों में महिलाओं के खिलाफ हो रही हिंसा और न्याय दिलाने वाली व्यवस्था पर एक विशेष रिपोर्ट तैयार की।
घटनाओं पर लगाम लगाने की जगह सरकार और पुलिस प्रशासन मामलों को या तो दबा देते हैं या ऐसे मामलों को दर्ज करने से ही बचते हैं। जैसे तैसे रिपोर्ट दर्ज भी हो जाए तो कानूनी दांवपेच की उलझनों में उलझकर यह मामले सालों साल चलते हैं। कई बार यह इंतजार इतना लंबा होता है कि हिंसा का सामना करने वाली औरत या उसका परिवार न उम्मीद होकर समझौता करने को राजी हो जाते हैं। कानूनी दांवपेच की कठिन प्रक्रिया से बचने के लिए इन मामलों को थाने तक ले जाने की जगह घर में ही सुलझाने में भलाई समझते हैं। कानूनी प्रक्रिया में देरी होने से आरोपी भी अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर बच निकलता है। सरकार और प्रशासन का एक दूसरा रवैया भी चिंता में डालने वाला है। ऐसी घटनाएं न हों इसके लिए कोई ठोस योजना बनाने की जगह ऐसे आदेश जारी किये जा रहे हैं जिसे महिलाओं की आजादी सीमित होती है। दिल्ली में टैक्सी की सेवा को बंद करना इसका ताजा उदाहरण है। महिलाएं अक्सर देर रात ऐसी सेवाओं का इस्तेमाल करती हैं। इससे पहले दिल्ली में दफ्तरों में देर रात महिलाओं को न रोकने का आदेश जारी किया जा चुका है। सवाल उठता है कि हम घटनाओं पर लगाम लगाना चाहते हैं या महिलाओं की आवाजाही पर।
न्याय प्रक्रिया चुस्त और प्रशासनिक रवैया दुरस्त हो
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