अखबारों और चैनलों में लगातार चुनाव की खबरें छापी और दिखाईं जा रही हैं। ऐसी खबरें ऐसी खबरें जिन्हें छापने और दिखाने के लिए मीडिया को अच्छी खासी रकम मिलती है। उन्हें आजकल पेड न्यूज के नाम से जाना जाता है। चुनाव आयोग के अनुसार ऐसी कोई न्यूज या विश्लेषण अखबार में छापना या चैनलों में दिखाना मना है, जिससे किसी एक व्यक्ति या फिर किसी एक दल के बारे में राय बनें।
इस कानून की चपेट में सबसे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के योगेंद्र यादव आए। इस पार्टी के लोग एक अखबार बांटते पकड़े गए। इस अखबार का नाम था आप की क्रांति। अखबार के नाम पर प्रशंसापत्र प्रकाशित करना पेड न्यूज के दायरे में है। इसलिए गुड़गाव से चुनाव लड़ रहे योगेंद्र यादव को सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस भेज दिया। पटियाला से चुनाव लड़ रहे परनीत कौर को भी एक स्थानीय अखबार में पेड न्यूज छपवाने पर नोटिस भेजा चुका है। साल 2009 में कई बड़े अखबारों को भी नोटिस मिला था। पर क्या यही पेड न्यूज हैं? जबकि कई बार खबरों की भाषा और उसकी हैडिंग जान बूझकर ऐसे बनाए जाते हैं, जिनसे लोगों की राय बनाई और बिगाड़ी जा सके। ऐसे खबरें चुनाव जैसी निष्पक्ष प्रक्रिया पर गहरा असर डालती हैं।
मीडिया में बहसें छेड़ी जाती हैं, इंटरव्यू छापे और दिखाए जाते हैं। और तो और पार्टियों के नारों तक का इस्तेमाल हैडिंग में होता है। यहां सवाल यह उठता है कि क्या किसी राज्य विशेष के विकास मॉडल पर खबरें छापना ठीक है? जैसा कि गुजरात के मामले में हो रहा है। जबकि यहां के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस बार बनारस और वड़ोदरा से उम्मीदवार हैं। ऐसे में कई बार मन में सवाल उठते हैं कि क्या मीडिया अपनी भूमिका ढंग से निभा रहा है?
नोट के बदले न्यूज पर उठते सवाल
पिछला लेख