इस काॅलम के लिए जानकारी ऐ डी आर संस्था ने तैयार किया है। यह लेख अपर्णा लाल ने लिखा है।
कॉमन कॉज संस्था ने नोटा बटन की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील दायर की थी। नोटा बटन यानी वोट डालने की मशीन में एक ऐसा बटन जिसे दबाकर मतदाता किसी भी उम्मीदवार को न चुनने का फैसला दर्ज करा सकता है। इस केस में एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफॅार्म यानी ए.डी.आर. संस्था ने भी हस्तक्षेप किया था। सितंबर 2013 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने नोटा (उपरोक्त में कोई नहीं) के इस्तेमाल के पक्ष में फैसला दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद लोकसभा 2014 के चुनाव में पहली बार नोटा बटन का ई.वी.एम. मशीन में इस्तेमाल हुआ। उसके बाद होने वाले हर विधानसभा चुनाव में इसका इस्तेमाल हुआ। नोटा मतदाताओं का बहुत महत्त्वपूर्ण हक है। यह ज़रूरी है कि चुनाव आयोग इसका प्रचार-प्रसार करे। जनता को इसके लिए जागरुक करे। लोकसभा और विधानसभा चुनाव के साथ-साथ नोटा बटन का प्रयोग हर ग्राम पंचायत, नगरपालिका और नगरनिगम चुनावों में भी अनिवार्य रूप से होना चाहिए। अभी नोटा बटन के इस्तेमाल का शुरुआती दौर है। लोकसभा 2014 के चुनाव में नोटा को सिर्फ 1.10 प्रतिशत ही वोट मिले। और बिहार चुनाव में नोटा को केवल 3 प्रतिशत वोट मिले। इसलिए अभी इसके महत्त्व का पता नहीं चल पा रहा है।
अगर जनता पूरी तरह जागरुक हो गई। और बेझिझक नोटा के अधिकार का प्रयोग करने लगी तो राजनीतिक दलों पर स्वच्छ और ईमानदार छवि वाले उम्मीदवारों को ही चुनाव में उतारने के लिए दबाव बनेगा। एक बार नोटा के वोट का प्रतिशत चुनाव में विजयी उम्मीदवार के वोट प्रतिशत से अधिक हुआ तो उसके चुनाव को रद्द करने की मांग उठेगी। इतना ही नहीं इससे मतदाता के उम्मीदवारों की वापसी के अधिकार (राइट टू रिकॉल) के लिए भी रास्ता बनेगा। राइट टू रिकॉल के लिए काफी दिनों से आवाज़ उठ रही है।
अभी हाल ही में गुजरात के ग्राम पंचायत या नगर पालिका चुनाव के पहले गुजरात उच्च न्यायलय ने राज्य चुनाव आयोग को नोटा बटन के प्रति जागरुकता अभियान चलाने के निर्देश दिए थे। ए.डी.आर. संस्था की तरफ से उत्तर प्रदेश के मतदाताओं से भी यह अपील है कि वे राज्य चुनाव कमिश्नर पर ग्राम पंचायत या नगरपालिका चुनाव में नोटा के बटन को शामिल करने और इसके प्रचार-प्रसार के लिए दबाव बनाएं।