आज पत्रकारिता खतरे में है। हमारे पास ऐसी सरकार है जो जमीनी पत्रकारिता को सिरे से नकारती है और चाटुकार मीडिया को महत्व देती है। वहीं हमारे मीडिया हाउस भी फर्जी तथ्यों के आधार पर योजनाबद्ध खबरें प्रचारित कर पत्रकारिता को बदनाम करते हैं। यह सब देख कर ऐसा लगता है जैसे निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता की कोई जगह नहीं बची है।
इन मुश्किल भरे हालातों में, छत्तीसगढ़ असुरक्षा का गढ़ बन चुकी हैं। यहाँ के पत्रकार खुद को हर वक्त पुलिस, सुरक्षाकर्मियों और माओवादियों से घिरा पाते हैं। इन संघर्ष भरे हालातों में जब एक पत्रकार स्वतंत्र, निष्पक्ष और जमीनी पत्रकारिता करता है तब राज्य सरकार, खासकर पुलिस की ओर से, पत्रकारों पर वैसी खबरें छापने का दबाव बनाया जा रहा है जैसा वे चाहते हैं या ऐसी खबरें रोकने को कहा जा रहा है जिन्हें प्रशासन अपने खिलाफ मानता है।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने मार्च में जगदलपुर, बस्तर और रायपुर का दौरा किया। इसकी जांच में यह नतीजा निकला है कि एक भी ऐसा पत्रकार नहीं है जो यकीन के साथ कह सके कि वह डर या दबाव के बिना काम कर पा रहा है। बस्तर और रायपुर में काम कर रहे सभी पत्रकार दोनों ओर से दबाव की बात करते हैं।
सभी ने शिकायत की है कि प्रशासन उनके फोन कॉल को टैप कर रहा है और अघोषित रूप से उनकी निगरानी की जा रही है। मीडिया हाउस भी पत्रकारों को किसी तरह की सुरक्षा प्रदान नहीं करते हैं. स्ट्रिंग्स को एक निश्चित अनुपात में बेतन नहीं दी जाती है और नहीं किसी दुर्घटना का किसी प्रकार का मुआवजा दिया जाता है।
फैक्ट फाइंडिंग टीम की रिपोर्ट से पत्रकारिता के सामने कुछ असहज सवाल खड़े हुए है। क्या है स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता की कीमत? क्या यह मुमकिन है कि स्वतंत्र पत्रकारिता अब भी स्वतंत्र, निर्भीक, समझौता न करने वाला रह पायेगा?
निष्पक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता की कीमत चुकाता छत्तीसगढ़
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