यह बात 1990 की है। जब भीषण सर्दी के मौसम में 25 दिसम्बर को मध्य प्रदेश में नर्मदा के किनारे से जन विकास संघर्ष यात्रा शुरू हुई थी। मध्य प्रदेश से लेकर गुजरात के सरदार सरोवर बाँध तक हज़ारों की संख्या में आदिवासी और किसानों ने पदयात्रा की थी जो 30 दिसम्बर तक मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमा पर स्थित फेरकुवा नामक जगह पहुंची।
अगले दिन जब यात्रा गुजरात में प्रवेश करने को थी। तभी फेरकुवा में यात्रा को गुजरात के नेताओं ने रोक दिया। उनका कहना था कि नर्मदा प्रोजेक्ट गुजरात के लिए जीवन रेखा की तरह था। वहीं किसानों का मानना था कि इस बाँध से प्राकृतिक नुकसान की सम्भावना ज्यादा थी।
सरकार और विरोधकर्ताओं के बीच प्रतिरोध लगातार 36 दिन तक चलता रहा। इस बीच मेधा पाटकर और उनके चार अन्य साथियों ने 22 दिन की भूख हड़ताल भी रखी। यह विवाद 30 जनवरी, 1991 में ख़त्म हुआ। यहीं पर नर्मदा बचाओ आन्दोलन का जन्म हुआ।
आज नर्मदा बचाओ आन्दोलन को शुरू होकर 31 साल पूरे हो गये हैं। पर्यावरण पर असर की जो चेतावनी नर्मदा आन्दोलन ने हमें दी थी, वही बुरे असर आज देश के हर कोने में देखने को मिल रहे हैं, चाहे वह गुजरात का भरूच क्षेत्र हो या असम-अरुणाचल का सुबनसिरी क्षेत्र।
इस आन्दोलन को हम इसलिए भी याद करते हैं क्योंकि नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने बाँध, वातावरण और विकास के मुद्दों पर हमारा नजरिया हमेशा के लिए बदल दिया है।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन बांध से विस्थापित हुए लोगों के अधिकारों के लिए आज भी लड़ रहा है।