नई दिल्ली। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के तीस साल पूरे हो गए लेकिन विस्थापितों को आज तक न्याय नहीं मिला। इसी वजह से आंदोलन से जुड़े सैकड़ों लोग 17 जुलाई को नर्मदा नदी घाटी से दिल्ली के जंतर मंतर तक पहुंचे। इन लोगों ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने और लोगों का पुर्नवास न करने यानी विस्थापितों को न बसाने को लेकर दो दिनों तक विरोध प्रदर्शन किया।
आंदोलन को शुरू करने वाली मेधा पाटकर समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसमें हिस्सा लिया। हालांकि सरदार सरोवर बांध तो विरोध के बावजूद भी बन गया था। मगर अब यह आंदोलन विस्थापितों को बसाने, उन्हें मुआवज़ा दिलाने के समर्थन और बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने के विरोध में है।
नर्मदा जल ट्रिब्यूनल (एक खास कोर्ट) विवाद जब तक खत्म नहीं होता तब तक बांध में किसी भी तरह का बदलाव करना गैरकानूनी है। लेकिन केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने बांध की ऊंचाई सत्रह मीटर और बढ़ा दी। हाल ही में घाटी का डूबना – एक सभ्यता का नष्ट होना नाम से जारी हुई रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों के अनुसार इस बांध के बनने से तीन राज्यों के दो सौ पैंतालिस गांवों के ढाई लाख लोग विस्थापित हुए।
कैसे हुई आंदोलन की शुरुआत
आंदोलन की नींव 1983 में ही रख दी गई थी। जब दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने नर्मदा घाटी तक पैदल यात्रा की। उन्होंने सबसे पहले इस बांध के असर की एक रिपोर्ट बनाई जो लंदन के द इकोलॉजिस्ट और मुंबई की इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल साप्ताहिक पत्रिका में छपी। मेधा पाटकर ने इसकी अगुवाई की।
आन्दोलन की आवाज़
मेधा पाटकर ने कहा कि नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर कार्यक्रम प्रोजेक्ट एक बहुत बड़ा घोटाला था। इसमें बिना किसी अध्ययन के तीस बड़े और एक सौ सैंतिस मध्यम आकार के बांध बनाए जाने की योजना बना ली गई थी। पर्यावरण पर इसके असर, वहां के आदिवासियों के विस्थापन और जंगलों के कटने के असर का अध्ययन नहीं किया गया था।