पल्लवी पॉल एक फिल्ममेकर है और जेएनयू से पीएचडी किया हैं जैसे-जैसे मेरे सामने टीवी, सोशल मीडिया, अखबार और बातचीत के द्वारा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी पर लोगों के विचार और प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, एक खास डर बार-बार सामने आता है। वो डर है जेएनयू के ‘बदलाव लाने वाले’ स्थान के रूप में होने का, जहां युवा और मासूम दिमागों, बदला जाता है।
आलोचात्मक सोच, वाद विवाद, सवाल पूछना और अतिवादी वामपंथी राजनीति के साथ-साथ जेएनयू में समान सक्रिय हिंदुत्व और ब्राह्मणवादी राजनीति का भी रहा है। अफज़ल गुरु पर हर प्रदर्शन के साथ साथ गुरु दक्षिणा कार्यक्रम भी रहा है। हर सीताराम येचुरी के भाषण के साथ साथ अशोक सिंघल भी रहे हैं। फिर, ये डर ज़्यादा से ज़्यादा कल्पनात्मक प्रतीत होता है। ये डर कैंपस की ‘समझ’ पर आधारित है, इसकी असली राजनीतिक बनावट पर नहीं। अगर कोई ध्यान से सुने तो ये डर चीज़ों के बदलने का है। अपरिवर्तनीय ढंग से बदलने का। जेएनयू की छात्रा होने के नाते मैं मानती हूं कि इस कैंपस में चीज़े बदलती हैं। मगर उससे काफी अलग तरह से जिस तरह टीवी पर प्रस्तुतकर्ताओं द्वारा, भाजपा नेताओं द्वारा और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा दर्शाई जाती हैं। वैलेंटाइन्स डे के दिन जहां अलग-अलग राजनीतिक विचारधाराओं, पीढि़यों और इतिहासों को रखनेवाले हम हज़ारों लोगों ने इंसानी चेन बनाई। इस कैंपस ने मेरे प्यार को देखने का तरीका बदल दिया है। वो ये प्यार ही है जो वाष्पित होता है, हवा के साथ एक होकर वो ‘समझ’ बनाता है जिस रूप में जेएनयू को देखा जाता है। आज जब हम कैंपस को सैन्यीकरण की कागार पर देख रहे हैं तो प्यार के लिए जो स्थान था वही सबसे ज़्यादा असुरक्षित हो गया है।
विश्वविद्यालय ऐसे स्थान है जहां हर किसी को चाहे उनके विचार कितने ही अतिवादी क्यों न हों, अपनी आवाज़ उठाने का मौका मिलना चाहिए। तभी वाद-विवाद का स्वस्थ वातावरण कायम हो पाएगा। तभी लोग अपने आपको दमित नहीं बल्कि सचमुच बदला हुआ पाएंगे – वे ऐसे टाइम बम नहीं बनेंगे, जो हिंसा और नफरत की थोड़ी सी हवा देने पर फट जाएं।