पिछले तीन सालों से दिल्ली में कुछ लोग मिलकर भीड़भाड़ वाले किसी इलाके में नए साल का स्वागत करते हैं। उनके छोटे से कार्यक्रम में गाने, नारे और भाषण होते हैं। कई लोग उनके साथ चलते-फिरते जुड़ जाते हैं। आयोजकों का ये तरीका है रात के अंधेरे पर अपना हक जमाने का और नए साल में अलग-अलग समुदायों की उम्मीदों और हकों पर बात करने का।
2014 को भी इसी तरह अल्विदा कहा गया। साल के खत्म होते होते कई दुखद घटनाओं ने माहौल को उदास कर दिया पर एक मुद्दा जो लम्बे समय से चुनौतीपूर्ण बना हुआ है वह है औरतों और लड़कियों की सुरक्षा का। 2012 में दिल्ली सामूहिक बलात्कार केस का असर पूरे देश पर पड़ा। बलात्कार के अपराध के लिए एक नया, ज़्यादा सख्त कानून भी बना। लेकिन इस साल कई औरतों नेे एक बार फिर वही लड़ाई लड़ी।
बांदा जिले में औरतों के साथ बलात्कार और यौन हिंसा के केस पुलिस ने दर्ज नहीं किए और किए तो सही धाराएं नहीं लगाईं, अम्बेडकर नगर में हिंदू युवा वाहिनी गुट के नेता पर बलात्कार और अपहरण का केस चला और फैज़ाबाद में नरपतपुर की एक लड़की का परिवार उसके अपहरण और हत्या के महीनों बाद भी इंसाफ के लिए धरने पर बैठा है। बदायूं में दो बहनों की पेड़ से टंगी लाशों को भी अब तक इंसाफ नहीं मिला। दिल्ली में एक बार फिर शहर के बीचों बीच, चलती टैक्सी में बलात्कार की घटना हुई।
औरतों पर हो रही हिंसा को पहले से ज़्यादा रिपोर्ट किया जा रहा है लेकिन इंसाफ और सुरक्षा की लड़ाई अब भी मुश्किल है। 2015 में कदम रखते हुए इस लड़ाई को आगे बढ़ाते जाने की हिम्मत हम सब को मुबारक हो।
नए साल के लिए नई उम्मीदों का सपना
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